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सातवाँ अधिकार :: 303
वीचार का अर्थ
अर्थ व्यञ्जनयोगानां वीचारः संक्रमो मतः।
वीचारस्य हि सद्भावात् सवीचारमिदं भवेद् ॥47॥ अर्थ-द्रव्यगुणपर्यायों के समुदाय को अर्थ कहते हैं। व्यंजन नाम शब्द का है। योग आत्मप्रदेशचंचलता को कहते हैं। ये तीनों बातें परिवर्तनस्वरूप यहाँ होती हैं । अर्थात् अर्थ, जो कि ध्यान का विषयभूत होता है, वह बदलता रहता है। कभी द्रव्यस्वरूप ध्यान में रहता है तो कभी पर्याय अथवा गुणरूप। योगी कभी द्रव्य का स्वरूप ध्याने लगता है और कभी उसे छोड़ करके गुण या पर्याय को ध्याने लगता है। गुण या पर्याय को छोड़कर फिर से कभी द्रव्य का ध्यान करने लगता है। इस प्रकार थोड़े-थोड़े समय में ध्येय विषय को यह योगी बदलता रहता है । अथवा, यों भी कह सकते हैं कि प्रथम ध्यान की अवस्था शिथिल होने से उस ध्यान का एक विषय चिरकाल तक टिक नहीं पाता है, इसलिए विषयान्तर हुआ करता है। जिस प्रकार एक ही विषय चिरकालपर्यन्त टिकता नहीं है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान के शब्द तथा योग भी बदलते रहते हैं।।
जिस एक श्रुतवचन को लेकर प्रथम ध्यान करता है उसको थोड़े ही समय बाद छोड़कर एक दूसरे ही श्रुतवचन का आसरा ले लेता है। थोड़े ही समय बाद उसे भी छोड़कर, तीसरा श्रुतवचन धर लेता है। उसे भी छोड़कर फिर कभी पहले श्रुतवचन को अपना लेता है। इस प्रकार श्रुतवचनों में परिवर्तन करता रहता है, किसी एक योग पर कायम नहीं रहता। ___ काययोग को लेकर कभी तो ध्यान करता है और कभी उसे छोड़ करके मनोयोग को अथवा वचनयोग को ले लेता है। फिर कभी काययोग पर आ जाता है। इस प्रकार योगों का परिवर्तन सतत होता रहता है। इस ध्येय का, आगम के वचनों का और योगों का बराबर परिर्वतन, इस प्रथम ध्यान में होता रहता है। इस परिवर्तन का नाम वीचार रखा गया है। वीचार रहने से इस ध्यान को 'सवीचार' कहते हैं। इस प्रकार इस ध्यान के नाम में जो तीन शब्द जोड़े गये हैं उनकी सार्थकता है। वे तीन शब्द पृथक्त्व, वितर्क और वीचार हैं। नाम तो 'पृथक्त्ववितर्क' ऐसा ही है, परन्तु आगे के ध्यान में दृढ़ता आ जाती है, इसलिए परिवर्तन होना बन्द हो जाता है, इस ध्यान में उतनी दृढ़ता न होने से परिर्वतन होता रहता है। यह शिथिलता वीचार-विशेषण लगाने से ही जानी जाती है। अर्थात् यह पहला ध्यान सुदृढ़ नहीं होता, इसका विषय भी सुदृढ़ नहीं रहता और ध्यान का साधन भी सुदृढ़ नहीं रहता है। अर्थ-व्यंजनयोगों का परिर्वतन होना बताकर उक्त तीनों ही बातों में शिथिलता बता दी गयी है। एकत्व वितर्क ध्यान का स्वरूप
द्रव्यमेकं तथैकेन योगेनान्यतरेण' च।
ध्यायति क्षीणमोहो यत्तदेकत्वमिदं भवेत्॥48॥ अर्थ-दूसरे ध्यान का नाम एकत्ववितर्क है। प्रथम ध्यान में ध्येय का परिवर्तन होता था, परन्तु इस ध्यान में वह परिवर्तन बन्द हो जाता है अथवा यों कहना चाहिए कि उसी प्रथम ध्यान की शिथिलता कम हो जाने पर जब सुदृढ़ता प्राप्त हो जाती है तब परिर्वतन होना बन्द पड़ जाता है। उसी अवस्था
1. तीन योगों में से कोई एक योग का रहना माना गया है। इसके लिए अन्यतर शब्द कहा गया है, परन्तु यह कोई दोष नहीं है।
अन्यतर शब्द ही स्वतन्त्र शब्द है।
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