Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 359
________________ सातवाँ अधिकार :: 301 संस्थानविचय का स्वरूप लोकसंस्थान-पर्याय-स्वभावस्य विचारणम्। लोकानुयोगमार्गेण संस्थानविचयो भवेत् ॥43॥ अर्थ-लोक के संस्थान का विचार करना सो संस्थानविचय धर्म्यध्यान कहलाता है। (1) आकाश के ठीक बीच में अकृत्रिम स्वभाव वाला वेत्रासन, भल्लरी, मृदंग समान अथवा पुरुषाकार लोक का आकार है। नीचे से ऊपर तक चौदह राजू ऊँचा है। उत्तर-दक्षिण दिशाओं में सर्वत्र सात राजू विस्तीर्ण है। पूर्व-पश्चिम में नीचे सात राजू विस्तीर्ण है। ऊपर की ओर सात राजूपर्यन्त प्रमाण घटता हुआ मध्यलोक में एक राजू विस्तीर्ण रह गया है। फिर ऊपर की ओर साढ़े तीन राजू की ऊँचाई पर्यन्त विस्तार बढ़ता गया है। वह विस्तार पाँचवें स्वर्ग की जगह पाँच राजू प्रमाण हो गया है। फिर ऊपर की ओर विस्तार घटने लगा है। सो अन्त में एक राजू विस्तार रह गया है। ऊर्ध्वलोक में सोलह स्वर्ग, नौ ग्रैवेयक तथा अनुदिश, अनुत्तर विमानों की रचना है और अन्त में सिद्धस्थान है। नीचे सात राजू गहरा अधोलोक है जिसमें कि सात मुख्य और उनचास अवान्तर नरक स्थान हैं। सर्वत्र प्रत्येक नरकादिकों के नीचे की ओर तथा समग्र लोक के चारों ओर तीन-तीन वायुमण्डल हैं। उन वायुमण्डलपर्यन्त लोक का घनाकार देखा जाय तो तीन सौ तेतालीस राजू प्रमाण होता है। इस प्रकार लोकसंस्थान है। इसका विचार करना संस्थानविचय धर्म्यध्यान है। ___ लोक में जो वस्तुओं का स्वभाव दिख पड़ता है उसका विचार करना भी संस्थानविचय धर्म्यध्यान में गर्भित होता है क्योंकि, अमूर्तिक लोक का तो संस्थान दिख ही नहीं सकता है, इसलिए लोक में स्थित जो जीव-पुद्गलों के पर्याय हैं उन्हीं को लोक कह सकते हैं। अतः उनके स्वभाव का चिन्तवन करना संस्थानविचय धर्म्यध्यान हो सकता है। लोक में आलोकित होनेवाली चीजों का जो अलग-अलग तथा समुदायरूप आकार है वही लोक का संस्थान है। अलग-अलग आकार-जैसे, मेरूपर्वत का आकार, विन्ध्यादि पर्वतों का तथा नदी, ग्राम, नगर आदि का आकार-ये सब लोक के ही आकार हैं। सामान्य आकार-जैसे तीनों लोक पुरुषाकार, इत्यादि सर्वलोक के ही आकार हैं। लोक में स्थित मनुष्यादि प्राणियों के शरीर प्रमाणादि भी लोकसंस्थानरूप ही हैं, इसलिए उनका विचार करना भी संस्थानविचय धर्म्यध्यान समझना चाहिए। लोकगत द्वीप-समुद्रादि वस्तुओं की संख्या का चिन्तवन करना, रचनाविशेष पर विचार करना भी संस्थानविचय धर्म्यध्यान है। इस प्रकार लोक के संस्थान का विचार चार विकल्प से हो सकता है, इसीलिए ऊपर की चारों बातों पर विचार करना, उसके चिन्तवन में रत होना सो सर्व संस्थानविचय धर्म्यध्यान कहलाता है। 1. सव्वायासमणंतं तस्स य वहुमज्झसंठिओ लोओ। सो केणवि णत्थि कओ णय धरिओ हरिहरादीहिं॥ सत्तेक्कपंच इक्कामूले मज्झे तहेव बंभंते। लोयंते रज्जूओ पुव्वावरदो य वित्थारो॥ उत्तर दक्खिणदो पुण सत्त वि रज्जू हवेइ सव्वत्थ। उड्डो चउदस रज्जू। सत्त विरज्जूधणोलोओ॥ मेरुस्स हिट्टभाए सत्त वि रज्जू हवे अहोलोओ। उड्डम्मि उड्डलोओ मेरुसमो मज्झिमो लोओ॥ 115-1201 का. अनु. लोका.। 2. लोक: संस्थानभेदाद्वा स्वभावाद्वा निवेदितः । तदाधारो जनो वापि मानभेदोऽपि वा क्वचित्॥ लोकस्याधो मध्योर्ध्वं भेदस्य संस्थानं संनिवेशो लोक्यमानस्वभावस्य च लोकस्य संस्थानं प्रति द्रव्यस्याकृतिः, तदाधारस्य च जनस्य लोकस्य संस्थानं स्वोपात्तशरीरपरिमाणाकारो, मानभेदस्य च संख्याविशेषाकारः संस्थानम् तस्य विचयः संस्थानविचयः। श्लो.वा.भा. 7, श्लो. 5 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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