Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 355
________________ सातवाँ अधिकार :: 297 अर्थ-सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान होते हुए जो चारित्र निर्मल करने की इच्छा प्रकट हो, चारित्र में भक्ति उत्पन्न हो, चारित्र की तरफ लक्ष्य जाने पर रोमांच व हर्ष उत्पन्न हो सो चारित्रविनय है। सदा चारित्ररूप भाव रखना भी चारित्रविनय ही है। उपचारविनय का स्वरूप अभ्युत्थानानुगमनं वन्दनादीनि कुर्वतः। आचार्यादिषु पूज्येषु विनयो ह्यौपचारिकः॥34॥ अर्थ-पूज्य आचार्य, उपाध्याय आदि अपने प्रत्यक्ष हो जाने पर उनके लिए उठ खड़े होना, उनके पीछे-पीछे चलना, उनकी वन्दना करना, हाथ जोड़ना इत्यादि कृति को उपचारविनय कहते हैं। उनके परोक्ष रहने पर भी गुणानुवाद करना, हाथ जोड़ना, गुण चिन्तवन करना सो भी उपचारविनय ही है। पूजा के कारण गुण होते हैं। इसलिए साक्षात् सम्यग्दर्शनादि गुणों का विनय तो सम्यग्दर्शनादिकों को निर्मल धारण करने से होता हैं, परन्तु उन गुणों के कारण पूजना यह गुणों के साथ उपचरित सम्बन्ध द्वारा सिद्ध होता है. इसलिए इसे उपचारविनय कहते हैं। विनय तप के होने से ज्ञान का लाभ हो सकता है. आचार विशुद्ध हो जाता है, दर्शनादि आराधनाओं की सिद्धि हो सकती है। धर्म की पात्रता विनय गुण के ही रहने से हो सकती है। अविनीत मनुष्य में कोई भी गुण प्रवेश नहीं करते हैं। विनयतप की इसीलिए आवश्यकता है। इस प्रकार स्वाध्याय आदि पाँच अन्तरंग तपों का स्वरूप निरूपण पूरा हुआ। ध्यान तप के हेयोपादेय भेद आर्तं रौद्रं च धर्म्यं च, शुक्लं चेति चतुर्विधम्। ध्यानमुक्तं परं तत्र तपोऽङ्गमुभयं भवेत्॥35॥ अर्थ-आर्तध्यान, रौद्रध्यान,धर्मध्यान, शुक्लध्यान इस प्रकार ध्यान के चार भेद हैं। इनमें से अन्त के दो ध्यान मोक्ष के कारण और तप में गर्भित हैं। पहले दोनों ध्यान संसार-वृद्धि के कारण हैं, इसलिए वे हेय हैं। आर्तध्यान का भेदपूर्वक स्वरूप प्रियभ्रंशेऽप्रियप्राप्तौ निदाने वेदनोदये।। आर्तं कषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः॥ 36॥ अर्थ-1. इष्ट का नाश हो जाने पर, चिन्ता शुरू होती है उसे इष्टवियोगज नाम आर्तध्यान कहते हैं, आर्तध्यान का यह पहला भेद है। 2. अनिष्ट वस्तु का संयोग हो जाने पर उसे दूर हटाने की चिन्ता ष्टसंयोगज आर्तध्यान कहते हैं. यह दसरा भेद है। 3. अप्राप्तपर्व वस्तओं के प्राप्त होने की आकांक्षा को निदान कहते हैं, यह आर्त का तीसरा भेद है। 4. दुःख की वेदना होने पर अधीर होकर उससे मुक्त होने की चिन्ता करना सो वेदना जनित चौथा आर्तध्यान है। आर्तध्यान के ये चार भेद हैं, यद्यपि इष्टवियोगज आर्तध्यान में निदान का समावेश करने की इच्छा हो सकती है, परन्तु वे दोनों भिन्न Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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