________________
सातवाँ अधिकार :: 295 में कोई विशेष भेद नहीं है, परन्तु जिनका वैयावृत्त्य करना चाहिए, उनके दश भेद ऊपर कहे हैं। इसलिए उपचारवश वैयावृत्त्य के वे भेद मान लिये गये हैं।
___ 1. जो संघ के स्वामी होते हैं उन्हें सूरि या आचार्य कहते हैं। 2. शिक्षा देनेवाले या पढ़ानेवाले साधुओं को उपाध्याय कहते हैं। 3. बहुत पुराने तपस्वियों को साधु कहते हैं। 4. पढ़ने, सीखनेवालों को शिष्य अथवा शैक्ष्य कहते हैं। 5. रोगी मुनियों को ग्लान कहते हैं। 6. उपवासादि बड़े-बड़े तप करनेवालों को तपस्वी कहते हैं। 7. आचार्य के शिष्य समूह को कुल कहते हैं। 8. ऋषि, मुनि, अनगार, तपस्वी इन चारों के समुदाय को संघ कहते हैं। 9. लोक में जिसकी मान्यता अधिक हो, जो महाकुल में उत्पन्न हुआ हो, बड़ा विद्वान हो, वक्ता हो उसे मनोज्ञ कहते हैं। आचार्यों द्वारा मान्य मुनिदीक्षा का इच्छुक ऐसे असंयत सम्यग्दृष्टि को भी मनोज्ञ कहते हैं। 10. वृद्ध साधुओं के समूह को गण कहते हैं।
इन दश भेदों में से नौ तो साधुओं के ही भेद हैं और एक मनोज्ञ ऐसा है कि जिसमें गृहस्थ व साधु दोनों का अन्तर्भाव किया है। गृहस्थ सम्यग्दृष्टि को भी मिथ्यात्वादि दोषों से बचाने के लिए वैयावृत्त्य होने योग्यों में गर्भित करते हैं।
इन दशों में से किसी को भी रोग हो जाए, परिषह या उपसर्ग आ जाए अथवा मिथ्यात्व का दोष होते दिखे तो प्रासुक औषध देकर, भोजनादि कराकर, रहने के लिए स्थान देकर, बिछौना आसनादि देकर
और भी जैसे हो सके, वैसे उपचार करके, शरीर स्वस्थ करना तथा धर्म में दृढ़ करना चाहिए। यह सब वैयावृत्त्य का स्वरूप' है।
व्युत्सर्ग तप के भेद व नाम
बाह्यान्तरोपधि-त्यागाद् व्युत्सर्गो द्विविधो भवेत्।
क्षेत्रादिरुपधिर्बाह्यः क्रोधादिरपरः पुनः॥29॥ अर्थ-दूसरे पदार्थ में बल उत्पन्न करनेवाला जो अन्य तत्त्व, उसे उपधि अथवा उपाधि कहते हैं। दूसरों को भी जो पदार्थ जुदा दिखें वह बाह्य उपाधि है। क्रोधादि अन्तरंग भावों को अन्तरंग उपाधि कहा है। इन दोनों उपाधियों के छोड़ने को व्युत्सर्ग कहते हैं। उपाधि दो प्रकार की हैं, इसलिए व्युत्सर्ग के भी दो भेद हो जाते हैं। पहले का नाम बाह्योपाधि व्युत्सर्ग है। दूसरे का नाम आभ्यन्तरोपाधि व्युत्सर्ग है। शरीर से ममत्व सम्बन्ध छोड़ने को भी आभ्यन्तरोपाधि व्युत्सर्ग कहते हैं। शरीर से ममत्व सम्बन्ध एक तो कुछ समय के लिए ध्यानावस्था में छूट जाता है, दूसरा यावज्जीवन त्याग होता है जो कि सल्लेखना समाधि के समय किया जाता है।
दीक्षा के समय भी बाह्य, आभ्यन्तर उपाधियों का त्याग किया जाता है, परन्तु उस समय उपस्थित धन, धान्यादि वस्तुओं के त्याग का अभिप्राय मुख्य रहता है। यहाँ पर तो ऐसा कोई पदार्थ ही नहीं है जो कि छोड़ने योग्य हो। तो भी कषाय मन्द करने के लिए, ध्यानसिद्धि के लिए शरीरादिकों से ममत्व
1. व्यावृत्तिव्यपनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात्। वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपि संयमिनाम्॥-रत्नक, श्रा. 112
Jain Educationa International
www.jainelibrary.org
For Personal and Private Use Only