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294 :: तत्त्वार्थसार
उपस्थापना-प्रायश्चित्त का स्वरूप
पुनर्दीक्षाप्रदानं यत् सा ह्यपस्थापना भवेत्॥25॥ ___ अर्थ-कोई महान दोष लगने पर आज तक का तप छोड़ करके फिर से यदि साधु को नया दीक्षित बनाया जाए तो उस प्रायश्चित्त को उपस्थापना कहते हैं।
परिहार-प्रायश्चित्त का स्वरूप
परिहारस्तु मासादि-विभागेन विवर्जनम्। अर्थ-महीने, पन्द्रह दिन आदि कुछ नियत समय के लिए संघ में से निकाल देने को परिहारप्रायश्चित्त कहते हैं।
छेद-प्रायश्चित्त का स्वरूप
प्रव्रज्याहापनं छेदो मास-पक्ष-दिनादिना॥26॥ अर्थ-एक दिन या महीना, पन्द्रह दिन आदि कुछ समय दीक्षा के दिनों में से कम करने को छेद- प्रायश्चित्त कहते हैं। ये नौ भेद प्रायश्चित्त के हैं।
वैयावृत्त्य अन्तरंग तप के भेद
सूर्युपाध्याय-साधूनां शैक्ष्य-ग्लान-तपस्विनाम्। कुल-संघ-मनोज्ञानां वैयावृत्त्यं गणस्य च ॥27॥ व्याध्याद्युपनिपातेऽपि तेषां सम्यग् विधीयते।
स्वशक्त्या यत्प्रतीकारो वैयावृत्त्यं तदुच्यते॥28॥ अर्थ-किसी कष्ट को दूर करना सो वैयावृत्त्य है। कुछ कष्ट तो शरीर का श्रम करने से दूर हो सकते हैं, कुछेक दूसरे प्रकार से हो सकते हैं। जैसे कोई थक गया हो तो उसका शरीर दबाने से थकावट दूर हो सकती है। यह काम शरीर के श्रम से ही सिद्ध हो सकता है। अथवा किसी को कुछ उपसर्ग हो रहा तो वह अपने शरीर के प्रयत्न से दूर हो सकता है। यदि कोई रोगी है तो उसे औषध देने से उसका कष्ट दूर होगा। कोई भयभीत हो रहा हो तो उसे वचनों से धैर्य बँधाने पर वह भय से मुक्त हो सकता है। प्रयोजन यहाँ यह है कि किसी भी तरह दूसरों का कष्ट दूर करना चाहिए। इसी को वैयावृत्त्य कहते हैं।
1. आचार्य, 2. उपाध्याय, 3. साधु, 4. शिष्य, 5. ग्लान, 6. तपस्वी, 7. कुल, 8. संघ, 9. मनोज्ञ, 10. गण-साधुओं के ये दश भेद हैं। इन दशों प्रकार के साधुओं का वैयावृत्त्य जैसे हो सकता हो वैसे करना चाहिए। इनको कोई व्याधि अथवा उपसर्गादि होने लगा हो तो उसका निर्दोष रीति से प्रतिकार करना चाहिए। जहाँ तक अपनी शक्ति हो, वहाँ तक करना चाहिए। इसी का नाम वैयावृत्त्य है। वैयावृत्त्य
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