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288 :: तत्त्वार्थसार
अर्थ - कालक्रम से विपाक को प्राप्त हुए कर्मों का फलानुभव करके जो छोड़ना है वह प्रथम निर्जरा है। ऐसी निर्जरा जगत के सभी जीव करते हैं, परन्तु दूसरी जो निर्जरा है उसे तपस्वी ही कर सकते हैं, अर्थात् उसमें इतना ही विशेष है कि कर्मों का परिपाक होने पर उसका अनुभव नहीं किया जाए तो विपाकानन्तर जो निर्जरा होगी वह अविपाक समझी जाएगी। दोनों ही निर्जरा विपाक प्राप्त कर्मों की होती है ऐसा जो कहा है वह विपाक उदयावली में कर्म का प्राप्त होना है अथवा उद्रेक होना है अथवा फल देने के सन्मुख होना है। कर्म की ऐसी अवस्था दोनों ही निर्जराओं में होती है । यदि अविपाक निर्जरा में कर्मों का विपाक होना न माना जाए तो तपस्वियों के भी जो कुछ कर्म स्वयमेव काल पाकर उदय को प्राप्त होते हैं उनका विपाक होना ही असम्भव हो जाएगा, परन्तु स्थिति समाप्त हो चुकी हो तो उनको उदयावली में आने से कैसे रोका जा सकता है ? और जो जीव कर्म के उदय का अथवा उदीरणा का अनुभव करते हैं उनके उन कर्मों की निर्जरा सविपाक मानी जाती है। श्लोक में क्रमप्राप्त कर्म का अनुभव होने पर होने वाले क्षय को सविपाक निर्जरा कहा है। क्रमप्राप्त एक तो वे कर्म होते हैं जो यथाकाल उदय को प्राप्त होते हैं; और दूसरे उन्हें भी क्रमप्राप्त ही मानना चाहिए जो कि उदीरणा द्वारा उद्रेकित होते हैं । तपश्चरण द्वारा उदयावली में आनेवाले वे कर्म समझे जाते हैं जो कि केवल निर्जरा की इच्छा से तपों द्वारा उद्रेकित किये गये हों ।
तपश्चरण के भेद
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तपस्तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्याभ्यन्तर- भेदतः ।
प्रत्येकं षड्विधं तच्च सर्वं द्वादशधा भवेत् ॥ 7 ॥
अर्थ - तप के मूल दो भेद हैं- बाह्य तप और आभ्यन्तर तप । दोनों के उत्तर भेद छह-छह हैं। इस प्रकार सब बारह भेद तप के हो जाते हैं । संवर प्रकरण में तप का लक्षण कह चुके हैं कि " कर्मक्षयार्थं यत्तप्यते तत्तपः स्मृतम्।" इसलिए यहाँ पर लक्षण न कहकर भेद मात्र की संख्या दिखा दी है।
बाह्य तप के छह भेदों के नाम
बाह्यं तत्रावमौदर्यमुपवासी रसोज्झनम् ।
वृत्तिसंख्या वपुः क्लेशो विविक्त - शयनासनम् ॥ 8 ॥
अर्थ- उन दोनों भेदों में से बाह्य तप के जो छह भेद हैं उनके ये नाम हैं: 1. अवमौदर्य, 2. उपवास, 3. रसत्याग, 4. वृत्तिसंख्यान, 5. कायक्लेश, 6. विविक्तशय्यासन ।
अवमौदर्य तप का स्वरूप
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सर्वं तदवमौदर्यमाहारं यत्र हापयेत् ।
एकद्वित्र्यादिभिर्ग्रासैराग्रासं समयान्मुनिः ॥ १ ॥
अर्थ - जिसमें आहार को घटाया जाता है उस सारी प्रवृत्ति को अवमौदर्य तप कहते हैं। इसके घटाने की विधि यह है कि मुनि का जो पूर्ण भोजन है उसमें से एक, दो, तीन आदि ग्रास घटाकर मुनि भोजन करे। इसके घटाने की उत्कृष्ट सीमा वहाँ तक है जहाँ एक ग्रास शेष रह जाए। एक ग्रास घटाकर
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