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290 :: तत्त्वार्थसार
विविक्तशैयासन तप का स्वरूप
जन्तुपीडा-विमुक्तायां वसतौ शयनासनम्।
सेवमानस्य विज्ञेयं विविक्तशयनासनम्॥14॥ अर्थ-जन्तुओं की पीडा रहित वसतिका में सोना, बैठना इसका नाम विविक्तशैयासन तप है। एकान्त स्थान में सोने-बैठने को विविक्तशैयासन कहते हैं। अन्तरंग तप के छह भेदों के नाम
स्वाध्यायः शोधनं चैव वैयावृत्त्यं तथैव च।
व्युत्सर्गो विनयश्चैव ध्यानमाभ्यान्तरं तपः। 15॥ अर्थ-(1) स्वाध्याय, (2) प्रायश्चित्त, (3) वैयावृत्त्य, (4) व्युत्सर्ग, (5) विनय और (6) ध्यान, ये छह अन्तरंग तप के भेद हैं। स्वाध्याय तप का स्वरूप व भेद
वाचना-पृच्छनाम्नायः तथा धर्मस्य देशना।
अनुप्रेक्षा च निर्दिष्टः स्वाध्यायः पञ्चधा जिनैः॥16॥ अर्थ-वाचना, पृच्छना, आम्नाय, धर्मदेशना, अनुप्रेक्षा ये पाँच प्रकार स्वाध्याप तप के माने गये हैं। स्वाध्याय का अर्थ विद्याभ्यास करना है। पढना. पढाना. शद्ध पाठ उच्चारण करना. धर्मसम्बन्धी उपदेश करना, अथवा तत्त्वों का चिन्तवन करना ये सभी बातें विद्याभ्यास में ही गर्भित होती हैं। वाचना स्वाध्याय का स्वरूप
वाचना सा परिज्ञेया यत्पात्रे प्रतिपादनम्।
ग्रन्थ'स्य वार्थ पद्यस्य तत्त्वार्थस्योभयस्य वा॥17॥ अर्थ-ग्रन्थ पढ़ाना अथवा तत्त्वार्थ का स्वरूप बताना अथवा ग्रन्थ और अर्थ-दोनों पढ़ाना इसका नाम वाचना है। जो पढ़ाने का या बताने का पात्र हो उसी को पढ़ाना चाहिए। पात्रता का होना, जिज्ञासु होना, यह एक लक्षण मुख्य है। इसके सिवाय बुद्धिमान् हो, दुराग्रही न हो, पढ़कर मनन करनेवाला हो, गुरु की और विद्या की भक्ति, विनय करनेवाला हो, गुरु की आज्ञा माननेवाला हो-इत्यादि और भी पात्रता के सूचक गुण माने गये हैं। इसी को पढ़ाना अथवा अध्यापन अथवा वाचना कहते हैं। वाचना का फल प्रज्ञातिशय है। पृच्छना स्वाध्याय का स्वरूप--
तत्संशयापनोदाय तन्निश्चय-बलाय च। परं प्रत्यनुयोगो यः पृच्छनां तद्विदुर्जिनाः ॥18॥
1. गद्यस्य, पाठान्तरम्। 2. 'ग्रन्थस्य वाथ पद्यस्य' ऐसा पाठ था परन्तु 'निरवद्यग्रन्थार्थोभयप्रदानं वाचना' इस वार्तिक के अनुसार ऊपर का पाठ शुद्ध समझा गया। 3. 'परं प्रत्यनुयोगाय' ऐसा प्रथम पाठ था।
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