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सातवाँ अधिकार :: 289
भोजन करना जघन्य अवमौदर्य है। एक ग्रासमात्र भोजन करना उत्कृष्ट अवमौदर्य है। बीच के भेद मध्यम अवमौदर्य में गर्भित होते हैं।
उपवास तप का स्वरूप
मोक्षार्थं त्यज्यते यस्मिन्नाहारोऽपि चतुर्विधः।
उपवासः स तद्भेदाः सन्ति षष्ठाष्टमादयः॥10॥ अर्थ-केवल मुक्तिफल की इच्छा रखते हुए सर्व विषयों से उपेक्षित होकर चारों प्रकार के आहार का त्याग जिस तप में किया जाता है उसे उपवास कहते हैं। बेला, तेला आदि उपवास के ही भेद हैं। आहार चार हैं-अन्न, खाद्य, पेय, लेह। इन चारों आहारों का पूर्ण त्याग होने पर उपवास तप होता है। अवमौदर्य का अभ्यास बढ़ जाने पर उपवास तप करने में प्रवृत्ति की जाए तो सुखसाध्य होता है, इसीलिए अवमौदर्य के बाद में उपवास का नाम हैं। रसत्याग तप का स्वरूप
रसत्यागो भवेत्तैल-क्षीरेक्ष-दधिसर्पिषाम्।
एक-द्वि-त्रीणि चत्वारि त्यजतस्तानि पञ्चधा॥11॥ अर्थ-तेल, दूध, खांड, दही, घी-ये पाँच रस हैं। इनका यथासाध्य त्याग करना रसत्याग तप है। इसके पाँच प्रकार हो जाते हैं : (1) किसी एक रस का त्याग करना, (2) दो रसों का त्याग करना, (3) तीन रसों का त्याग करना, (4) चार रसों का त्याग करना, (5) पाँचों रसों का त्याग करना। पहला जघन्य है, अन्त का उत्कृष्ट है। बीच के तीनों भेद मध्यम तप समझना चाहिए।
वृत्तिसंख्यान तप का स्वरूप
एकवस्तु-दशागार-पान-मुद्गादिगोचरः।
संकल्पः क्रियते यत्र वृत्तिसंख्या हि तत्तपः॥ 12॥ अर्थ-भोजन के पूर्व मुनि इस प्रकार संकल्प करें कि मैं आज एक ही वस्तु का भोजन करूँगा, अथवा दश घर से अधिक न फिरूँगा, अथवा अमुक पान मात्र करूँगा, अथवा मूंग ही खाऊँगा इत्यादि अनेक प्रकार के संकल्प इच्छानिरोध के लिए किये जाते हैं। इसी को वृत्तिसंख्यान तप कहते हैं। एक वस्तु, दश अगार, पान, मूंग इत्यादि नाम उदाहरणार्थ बताये गये हैं। इन उदाहरणों से यह मतलब समझ लेना चाहिए कि इस प्रकार से वृत्ति की अर्थात् भोजन प्रवृत्ति की संख्या अर्थात् मर्यादा बाँधी जा सकती है। कायक्लेश तप का स्वरूप
अनेकप्रतिमा-स्थानं मौनं शीतसहिष्णुता।
आतपस्थानमित्यादि कायक्लेशो मतं तपः॥13॥ अर्थ-अनेक प्रकार के प्रतिमायोग धारण करना, मौन रहना, शीतबाधा सहना, धूप में जाकर खड़े होना इत्यादि कायक्लेश तप के प्रकार हैं।
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