Book Title: Tattvartha Sara
Author(s): Amitsagar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 345
________________ सातवाँ अधिकार :: 287 फल के भी पकने का यही अर्थ है कि जो वृक्ष के साथ दृढ़ सम्बन्ध था उसका शिथिल हो जाना और उसके जो अवयव दृढ़ थे उनका भी शिथिल हो जाना। फल पकने पर वृक्ष से अपने आप जुदा हो जाता है, क्योंकि उसके डंठल में जुड़े रहने की शक्ति नहीं रहती है। इसी प्रकार कर्म का परिपाक होते ही उसे आत्मा से जुदा होना पड़ता है। उसमें बन्धन की शिथिलता हो जाने से उसका वहाँ पूर्ववत् रहना अशक्य हो जाता है। इसके भोगने का अर्थ यह है कि पके हुए का जो उपयोग हो सकता है वह उपयोग हो जाना। जैसे, फल का उपयोग यह कि उसे खाकर जीव सुखी या दुःखी हो जाए। उसी प्रकार कर्म को भोगकर उसके द्वारा सुखी-दुःखी बनना कर्म के भोगने का मतलब है। जिस प्रकार यह नियम नहीं है कि पके हुए फल का भक्षण कोई न कोई करे ही, उसी प्रकार कर्म उदय में आने पर उसका फल भोगा ही जाए-यह नियम नहीं हो सकता है, इसलिए इस फल के उदाहरण से यह बात माननी चाहिए कि अविपाक निर्जरा बिना फल दिये ही हो जाती है। उदाहरण में जो भोक्ता है वह मनुष्य या प्राणी फल से जुदा दिख पड़ता है। फल परिपक्व होने पर जो वृक्ष से सम्बन्ध छोड़ता है उतनी तुलना दृष्टान्त से मिल जाती है। क्योंकि कर्मों के परिपाक का फल-भोक्ता भी वही प्राणी होता है और जिससे कर्म सम्बन्ध छोड़ता है वह भी वही प्राणी होता, परन्तु फल के कर्ता, भोक्ता, और उससे सम्बन्ध रखनेवाले जुदे-जुदे होते हैं। इतनी विषमता दृष्टान्त में जान पड़ेगी, परन्तु यह कोई दोष नहीं है। जगत के कारक के और भी ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं जो कि दोनों प्रकार के होते हैं। उदाहरणार्थ, "अमुक मनुष्य कुल्हाड़ी से लकड़ी काट रहा है"-इस वाक्य में कर्ता, कर्म, करण जुदे-जुदे हैं। "अमुक मनुष्य ज्ञान द्वारा अपने को जान रहा है"-इस वाक्य में कर्ता, कर्म, करण एक ही हैं। इसी प्रकार आम्र आदि फलों के कर्ता, भोक्ता आदि जुदे-जुदे हैं और कर्म के कर्ता, भोक्ता आदि एक ही हैं। इतनी विषमता से फल के परिपाक का उदाहरण मिथ्या नहीं हो सकता है। अथवा कर्ता, कर्म, करण आदि को कहीं भी जुदा-जुदा मानना व्यवहारनयाधीन है। वास्तव में और भी सूक्ष्म कार्यकारणादि सम्बन्ध देखे जाएँ तो सर्वत्र यही बात सिद्ध होती है कि कर्ता, कर्म आदि एक ही होने चाहिए। जुदा पदार्थ, जुदे पदार्थ के साथ कुछ नहीं कर सकता है, क्योंकि कुछ भी करने में और होने में शक्ति का विनियोग होता है। जबकि दूसरे पदार्थ की शक्ति किसी और दूसरे में परिवर्तन कर ही नहीं सकती तो वह दूसरे में करेगी क्या? यदि दूसरे का, दूसरे में परिवर्तन होना मान लिया जाए तो विश्व की उथल-पुथल हो जाए, इसलिए मानना चाहिए कि दूसरा कोई किसी का कुछ भी करता नहीं है। इस सिद्धान्त के अनुसार आम्रफलादिकों में क्या और कर्म में क्या? सर्वत्र कर्ता-कर्मादि तथा कर्ता-भोक्तादि एक वस्तु के ही धर्मविशेष तादात्म्य सम्बन्ध से मानने चाहिए, इसलिए कर्म का कर्ता करणादि सम्बन्ध पुद्गलों में ही माना जाता है और जीव को जीव के परिणाम में ही कर्ता-भोक्ता तथा कर्ता, करणादिरूप माना जाता है, इसलिए यह बात सिद्ध हुई कि भोग न होते हुए कर्म का, कृत्रिम उपायों से विपाक हो सकता है। यही बात आगे दिखाते हैंदोनों निर्जराओं के स्वामी अनुभूय क्रमात्कर्म विपाकप्राप्तमुज्झताम्। प्रथमास्त्येव सर्वेषां द्वितीया तु तपस्विनाम्॥6॥ 1. "पुग्गलकम्मादीणं कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदणकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं॥"-द्र.सं., गा. 8 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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