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पाँचवाँ अधिकार :: 249 ये विशेष हैं। इससे छोटे सामान्यविशेषों के उदाहरण जीवादि व संसारी, मुक्त इत्यादि उत्तरोत्तर अनेकों हो सकते हैं। सामान्य सदा व्यापक रहते हैं और विशेष व्याप्य। क्योंकि, सामान्य एक अवयवी की तरह होता है और विशेष उसके अवयवों की तरह।
हमने यह सामान्यविशेष का स्वरूप बताया वही दर्शन-ज्ञान का विषय है। दर्शन उस चैतन्य परिणाम को कहते हैं जो कि सामान्यमात्र का प्रतिभास होता है और वह भी महासामान्य का। महासामान्य या महासत्ता ये दोनों एक अर्थ के शब्द हैं। ज्ञान में भी सामान्य का प्रतिभास होता है। साथ ही कुछ और भी विशेषता रखता है। दर्शन का विषय केवल सामान्य होने से आकार की कल्पना नहीं की जा सकती, इसलिए दर्शन को निराकार कहते हैं। ज्ञान के आकार का अर्थ 'लम्बाई चौड़ाई व ऊँचाई' ऐसा नहीं होता, किन्तु विषय जिस तरह का हो उसी तरह का अनुभव हो जाना यह अर्थ है, क्योंकि, ज्ञान वास्तव में अमूर्त आत्मा का गुण होने से स्वयं अमूर्त है। फिर वह एक तो स्वयं अमूर्त हो और फिर भी द्रव्य न होकर गुण हो वह अपना जुदा आकार नहीं रख सकता है। गुणों के आकार, अपने-अपने आधारभूत द्रव्यों के जो आकार होते हैं, वे ही हो सकते हैं। ज्ञान गुण का आधार आत्मद्रव्य है, इसलिए उसी का आकार ज्ञान का आकार है। आत्मा सदा किसी भी आकार के पदार्थ को जानता रहे, परन्तु आकार में शरीराकार ही रहता है। बस, इसलिए ज्ञान में भी वास्तविक विषयाकार न होकर आत्मा का आकार रहेगा। ज्ञान ज्ञेय का सामर्थ्य, दूर-दूर और भिन्नाकार होने पर भी ऐसा मानना पड़ता है कि ज्ञान-ज्ञेय का ग्रहण करे और ज्ञेय गृहीत होता रहे। ऐसा उसमें होने में नियमित कारण ज्ञानावरणादि कर्मबन्धनों की शिथिलता या क्षयोपशम, बाह्य विषयों का सद्भाव संस्कार व इच्छा का झुकाव मानना पड़ता है। विषयाकार ज्ञान का होना यह जानने में कारण जो कुछ लोगों ने माना है वह असम्बद्ध है।
इस प्रकार ज्ञान को विशेषाकारग्राही होने से साकार या अज्ञान नाश का कारण अथवा विषयप्रतिबोधक मानते हैं, परन्तु दर्शन केवल सामान्यग्राही होने से निराकार या विषय का अप्रतिबोधक है। ये एक ही चेतनागुण के दो पर्याय हैं, परन्तु ज्ञान की तरतम वृद्धि के समान दर्शन, ज्ञान की तरतम अवस्थारूप केवल भेद नहीं मान सकते हैं, क्योंकि, 'एक विषय का बोधक है और दूसरा नहीं है' ऐसा जो विशाल अन्तर पड़ा हुआ है वह दर्शन को 'ज्ञान' ऐसा कहने नहीं देता। . ___ शंका-जबकि दर्शन सामान्य का ग्राहक है तो कुछ भी विषय का बोधक हो चुका, इसलिए उसे अबोधक क्यों कहते हैं ? सामान्य ग्राहक दर्शन को माना आवश्यक जाता है, परन्तु केवल सामान्य का स्वरूप ही जबकि ठहराया नहीं जा सकता कि सामान्य का अमुक स्वरूप है, तो उसका ग्राहक दर्शन को मानना ठीक नहीं है। जो सत्ता को महासामान्य मानकर उसी सत्ता के ग्राहक दर्शन को मानते हैं वह भूल है, क्योंकि, सामान्यदृष्टि से सत्ता या सत् का ग्रहण करना संग्रहनय का काम है जो कि एक ज्ञान विशेष है। दूसरी बात यह भी विचार करने की है कि उस सत्ता या सामान्य के ग्राहक संग्रहनय को भी माना जाता है, परन्तु दर्शन निराकार है और संग्रहनय-ज्ञान साकार है, सो क्यों? ज्ञान बिना विशेषता के कभी होता ही नहीं है। पदार्थ तथा गुणस्वभाव भी विशेषता के बिना नहीं रहते, इसलिए जबकि सत्ता का प्रतिभास दर्शन में होगा तो साथ ही सत्तान्तर्गत विशेषताओं का ग्रहण भी होना ही चाहिए जैसा कि संग्रह ज्ञान में होता है। जब कि विशेषताओं का ग्रहण दर्शन में हुआ तो दर्शन तथा ज्ञान में कुछ अन्तर ही नहीं रहा, इसलिए दर्शन को सत्ता का ग्राहक नहीं मानना चाहिए। यदि ऐसा है तो दर्शन को 'सत्तालोचन' इत्यादि नामों से क्यों सम्बोधते हैं? सत्तालोचन शब्द का अर्थ सत्ताप्रतिबोध होता है। (न्यायदीपिका)
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