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पाँचवाँ अधिकार :: 253
और आप स्वयं वहाँ बँधते हैं, इसलिए उन कर्मपिंडों में आत्मा को रोक रखने के लिए किसी आयु सरीखे कर्म की जुदी आवश्यकता नहीं पड़ती है, परन्तु नामकर्म के द्वारा जो शरीर प्राप्त होते हैं वे आत्मा को कर्म की तरह जकड़ नहीं सकते हैं। यदि कर्म निःशेष नष्ट हो जाएँ तो अपने आप शरीर से आत्मा जुदा हो जाएगा। कर्मों की तरह शरीर की निर्जरा का प्रयत्न नहीं करना पड़ता है इसीलिए शरीर व कर्मों में यह अन्तर है कि शरीर आत्मा के ऊपर का अवलेप है और कर्म आत्ममय तिल में तेल के समान हैं। इसीलिए शरीर में आत्मा को रोके रखने की सामर्थ्य से युक्त एक जुदा कर्म मानना पड़ता है जिसे कि आयु कहते हैं। यह आयुकर्म नामकर्म के शरीरादि कार्यों की अपेक्षा रखकर चरितार्थ होता है। इस प्रकार ये तीन अघाति कर्म मोहकर्म से उत्पन्न हुई मलिनता ने संगृहीत किये ऐसा मानना पड़ता है अर्थात् ये तीनों कर्म मोह के कार्य के अनुगामी हैं अथवा, मोह के कार्य को ही ये पुष्ट करते हैं। वेदनीय जो चौथा है वह तो मोह के अनुभव कराने का केवल कार्य करता है, इसीलिए वह स्पष्ट ही मोह के अधीन है और मोह सभी का स्वामी है।
इस प्रकार अघाति कर्मों को जुदे कार्यकारी न समझें तो भी काम चलता है, परन्तु शंका यह होगी कि मोहकर्म का दसवें गुणस्थान में नाश हो जाने पर अघाति कर्म कार्यकारी नहीं रहेंगे और अतएव उनके शरीरादि कार्य ही नष्ट हो जाने चाहिए, परन्तु शरीर तो चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक रहता है सो क्यों?
उत्तर-अघाति कर्मों का बन्ध होना ही तभी तक का है जब तक कि मोह का बन्ध होता रहता है। मोह की सर्वथा बन्ध व्युच्छित्ति दसवें गुणस्थान से आगे के लिए हो जाती है और अघाति कर्म भी तभी से रुक जाते हैं, घाति भी तभी से रुक जाते हैं। एक वेदनीय ही है जिसके सातावेद का बन्ध फिर भी माना है परन्तु वह आते ही चला जाता है। शरीर में विपरिणाम कुछ भी करता नहीं है। उसका बन्ध होना, न होना बराबर है। भावार्थ, वह बँधता तो क्या है, यों कहना चाहिए कि योग की चंचलता उस साता को लाती है पर वह न टिककर यों ही चला जाता है। अग्नि नष्ट हो जाए तो भी धुंआसा उठते हुए कुछ समय तक दिखता ही है पर वह सचमुच धुंआ नहीं है। इसी प्रकार कोई भी कार्य निःशेष होने पर भी कुछ समय तक उसकी वासना रहा ही करती है। यही बात यहाँ साता के बन्धन में है। पर टिकनेवाला वह बन्ध नहीं है, उसे बन्ध कहना एक उपचार मात्र है। वह संसार का कारण भी कुछ नहीं है। इसलिए उसे उपचरित बन्ध कह सकते हैं। इस प्रकार यह बात सिद्ध हुई कि मोह के आश्रित सर्व बन्ध होना है। चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक जो शरीर रहता है वह बन्ध का कार्य नहीं है, किन्तु उदय का है। जो बन्ध मोहकर्म के सहवास से हो चुका है उसका निर्मूलनाश तो प्रयत्नों से और धीरे-धीरे ही होगा न! वह प्रयत्न शक्लध्यान की पूर्णता है जो कि चौहदवें के अन्त में ही प्राप्त हो सकती है, इसलिए तभी नामकर्म के कार्य का पूर्ण अभाव भी हो पाता है। इस प्रकार मोहकर्म के बन्ध को समस्त कर्मों का स्वामी मानना युक्ति व आगम के सर्वथा अनुकूल है। 1. नामकर्म के उत्तर भेदों का प्रथम गुणस्थान से लेकर क्रम क्रम से कुछ-कुछ का बन्ध व्युच्छेद होते हुए दसवें तक सर्वनाश
हो जाता है। दसवें के अन्त में यशस्कीर्ति की व्युच्छिति होना बताया है। आयु में-नरकायु का प्रथम गुणस्थान में, तिर्यंच आयु का दूसरे में, मनुष्यायु का चौथे में, देवायु का सातवें में बन्ध व्युच्छेद हो जाता है। गोत्र में से नीच गोत्र का दूसरे गुणस्थान में, उच्चगोत्र का दसवें के अन्त में बन्ध व्युच्छेद होता है। असाता वेदनीय का छठे गुणस्थान के अन्त में, साता का तेरहवें के
अन्त में बन्ध व्युच्छेद होता है। 2. उवसंतखीणमोहे जोगिम्हि य समयियट्ठिदी सादं। णायव्वो पयडीणं वंधस्संतो अणंतो य ।।102 ।। (गो. क.)
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