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284 :: तत्त्वार्थसार
हुआ माना जाता है, परन्तु वह हुआ कि मोहोदय हो जाता है, जिससे कि यथाख्यात की दशा फिर भी छूट जाती है। क्षीणमोह के यथाख्यात से इस यथाख्यात का स्थान भी नीचा है और फल भी अल्प है, इसलिए वही चिरस्थायी यथाख्यात है जो कि क्षीणमोह को प्राप्त होता है ।
चारित्र का फल -
सम्यक् चारित्रमित्येतद् यथास्वं चरतो यतेः । सर्वास्त्रवनिरोधः स्यात् ततो भवति संवरः ॥ 50 ॥
अर्थ - इस प्रकार इस सम्यक्चारित्र का यथायोग्य आचरण करनेवाले साधु का सब कर्मास्रव होना रुक जाता है। इससे उसका संवर होना सिद्ध हो जाता है ।
तपस्तु वक्ष्यते तद्धि, सम्यग्भावयतो यतेः । स्नेहक्षयात्तथा योगरोधाद् भवति संवरः ॥51॥
अर्थ-तप आगे कहेंगे। उस तप की यथार्थ भावना करनेवाले योगी का रागद्वेष नष्ट हो जाता है और योग भी रुक जाते हैं, इसलिए उसके कर्मों का आना रुकता है और संवर सिद्ध होता है ।
संवर तत्त्व को जानने का फल
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इति संवरतत्त्वं यः श्रद्धते वेत्युपेक्षते ।
शेषतत्त्वैः समं षड्भिः, स हि निर्वाणभाग् भवेत् ॥ 52 ॥
अर्थ - इस प्रकार संवरतत्त्व का बाकी छह तत्त्वों के साथ-साथ जो श्रद्धान करता है, उसे जान लेता है और उपेक्षित होकर चारित्र धारण करता है वही निर्वाण का भागी होता है ।
इति श्री अमृतचन्द्राचार्यरचित तत्त्वार्थसार में संवर तत्त्व का कथन करनेवाला, धर्मश्रुतज्ञान हिन्दी टीका में छठा अधिकार पूर्ण हुआ ।
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