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262 :: तत्त्वार्थसार लेने में, भोग में, उपभोग में, सामर्थ्य में। इन बातों में विघ्न डालनेवाला अन्तराय कर्म भी इसीलिए पाँच प्रकार है : 1. दानान्तराय, 2. लाभान्तराय, 3. वीर्यान्तराय, 4. भोगान्तराय, 5. उपभोगान्तराय। एक बार ही जो वस्तु भोगने में आ सके वह भोग हैं; जैसे-भोजन। अनेक बार भोगने में जो वस्तु आ सकती है वह उपभोग है; जैसे कपड़े। भोग को परिभोग भी कहते हैं। इन पाँचों कर्मों का कार्य दान-लाभभोग-उपभोग-वीर्य में विघ्न डालना है। केवलज्ञान होने से पहली अवस्था में इन पाँचों का सद्भाव रहता है। मतिज्ञानावरणादिकों के क्षयोपशम के अनुसार जैसे मतिज्ञानादि प्रकट होते रहते हैं वैसे ही दानान्तरायादिकों का क्षयोपशम जब जैसा तीव्र, मन्द, मध्यम होता है तब वैसा ही दानादि परिणाम प्रकट होता है। वीर्यान्तराय के क्षयोपशमानुसार जीव की शक्ति हीनाधिक प्रमाण में प्रकट रहती है। ये इन कर्मों के क्षयोपशमों से होनेवाले जीव-स्वभाव हैं। शक्ति के बिना ज्ञानादि गुण भी प्रकट हों तो टिक नहीं सकते
इसलिए वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से प्रकट होनेवाला सामर्थ्य अथवा बल ज्ञान के प्रकट होने में भी उपयोगी होता है। अतएव ज्ञान का साक्षात् घातक तो ज्ञानावरण ही है, परन्तु परम्परया घातक अन्तराय भी माना गया है।
शंका-मोह के उदय से जिस प्रकार जीव का श्रद्धा, चारित्र गुण विपरीत हो जाता है उसी प्रकार आवरण के तथा अन्तराय के उदयों से जीव के वीर्य तथा ज्ञानगुण विपरीत नहीं होते, किन्तु नष्ट होते हैं। जो विपरीत होता है वह नष्ट हुआ नहीं कहा जा सकता है, इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव के दर्शन (श्रद्धा), चारित्र गुण पूरे विपरीत हो जाने पर भी नष्ट नहीं होते हैं, परन्तु आवरण के तथा अन्तराय के उदय से ज्ञान व वीर्यगुण नष्ट हुए माने जाते हैं सो कैसे हो सकता है? क्योंकि, जो सत् है उसका नाश होना सम्भव नहीं है?
उत्तर-कोई भी आवरण अथवा अन्तराय अपने विषय को नष्ट अवश्य करता है, परन्तु निःशेष नष्ट नहीं करता, इसीलिए जैसा कि मोहकर्म का मिथ्यादृष्टि जीव में पूरा उदय हो जाता है वैसा आवरण तथा अन्तराय का पूरा उदय कभी किसी जीव में नहीं हो पाता है। जीव का छोटे से छोटा ज्ञान और थोड़े से थोड़ा बल सदा ही प्रकाशमान बना रहता है। फिर जैसा जहाँ उदय या क्षयोपशम होता है वैसा वहाँ ज्ञान तथा बल अप्रकट एवं प्रकट होता रहता है। यदि आवरण का तथा अन्तराय का पूरा उदय भी कहीं पर हुआ करता तो जीव के ज्ञान और बलगुण नि:शेष नष्ट हो जाने से जीव का ही नाश हो जाना मानना पडता. परन्त जीव का नाश होना असम्भव है। इससे यह तात्पर्य सिद्ध हआ कि ज्ञान और बल की सत्ता में यह सामर्थ्य है कि अपने घातक कर्म सदा विद्यमान रहते हुए भी उनका पूर्ण उदय न होने दे। अतएव उतने आवरण का और अन्तराय का उदयाभावी ही क्षय होता रहता है। वह कभी उदय में नहीं आ सकता। निरुपयोगी होकर भी वह बँधता अवश्य है।
इस कथन से इस बात का समर्थन तो अवश्य हो जाता है कि जीव के ज्ञान व बल गुण नष्ट नहीं होते जिससे कि सत् का अभाव होना मानना पड़े। तो भी जितने अंश नष्ट होते हैं उनके विषय में तो यह आशंका बनी ही रही कि सत् का विनाश होता है। इसी प्रकार जब क्षयोपशम द्वारा उन गुणों के अंश प्रकट होने लगेंगे तब असत् के उत्पाद का भी दोष आ जाएगा?
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