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280 :: तत्त्वार्थसार लोकानुप्रेक्षा का स्वरूप
नित्याध्वगेन जीवेन भ्रमता लोकवर्त्मनि।
वसति-स्थानवत् कानि कुलान्यध्युषितानि न ॥40॥ अर्थ-जीव सदा ही भ्रमण करता है। राहगीर ही बना रहता है। लोक मात्र भ्रमण का मार्ग है। घर, द्वार की तरह असंख्यातों ऐसे शरीराकार हैं कि जिन्हें कुल कहते हैं। उनमें से ऐसे कौन से कुल हैं जो कि जीव ने अपने भ्रमण में घररूप न बना लिये हों-जिनमें कि जीव भ्रमते हुए निवास न कर चुका हो। जबकि अनादि से भ्रम रहा है तो कौन-सा लोक-क्षेत्र तथा कुल इससे छूट सकता है? एक बार नहीं, किन्तु अनेक अनेक बार, एक-एक क्षेत्र में जन्म-मरण हो चुके हैं। इस प्रकार लोक का अपने साथ घनिष्ट सम्बन्ध है। यह कैसे छूटे? बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा का स्वरूप
मोक्षारोहणनिश्रेणिः कल्याणानां परम्परा।
अहो कष्टं भवाम्भोधौ बोधिर्जीवस्य दुर्लभा॥41॥ अर्थ-देखो, यह बड़ा कष्ट है कि, जो मोक्ष तक चढ़ने के लिए सीढ़ियों के समान है, कल्याणों की परम्परा है, ऐसी बोधि अर्थात् रत्नत्रय की प्राप्ति संसार-सागर में जीव के लिए अत्यन्त दुर्लभ हो रही है। यदि जीव इस संसार-सागर से तरना चाहे तो रत्नत्रय के द्वारा ही तर सकता है। उसी के द्वारा मोक्ष में पहुँच सकता है। संसार में जब तक जीव रहे तबतक भी उससे अनेक और सातिशय सुख प्राप्त हो सकते हैं, परन्तु उसे रत्नत्रय की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन हो रहा है। जीव का नित्यनिगोद पहला निवासस्थान है। वहाँ से मनुष्यजन्म तक आना अति कठिन है। मनुष्य-भव में ही रत्नत्रय का लाभ हो सकता है। यदि यह जन्म निष्फल गया तो फिर समुद्र में चिन्तामणि रत्न फेंक देने के बराबर हानि होगी।
धर्मानुप्रेक्षा का स्वरूप
क्षान्त्यादिलक्षणो धर्मः स्वाख्यातो जिनपुंगवैः।
अयमालम्बनस्तम्भो भवाम्भोधौ निमज्जताम्॥42॥ अर्थ-उत्तमक्षमादिरूप धर्म का सच्चा स्वरूप जिनेन्द्रभगवान ने ही कहा है। संसारसमुद्र में डूबते हुए प्राणियों को यही आश्रय देनेवाला-उन्हें थामने वाला खम्भ है। इसी के सहारे से प्राणी संसारसमुद्र में डूबने से बचते हैं और पार होते हैं। भावनाओं का एकमात्र फल
एवं भावयत: साधोर्भवेद्धर्ममहोद्यमः। ततो हि निष्प्रमादस्य महान् भवति संवरः॥43॥
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