________________
पाँचवाँ अधिकार :: 261
18. एक निर्माण कर्म है। इसके भी प्रमाणनिर्माण और स्थाननिर्माण ये दो भेद होते हैं। परन्तु उन भेदों के वश दो प्रकृति मानी जाती हैं, इसलिए इसकी एक संख्या ही लेनी चाहिए। पाँच बन्धन हैं : 19.
औदारिक शरीरबन्धन, 20. वैक्रियिक शरीरबन्धन, 21. आहारक शरीरबन्धन, 22. तैजस शरीरबन्धन, 23. कार्मण शरीरबन्धन। पाँच संघात हैं : 24. औदारिक शरीर संघात, 25. वैक्रियिक शरीर संघात, 26. आहारक शरीर संघात, 27. तैजस शरीर संघात, 28. कार्मण शरीर संघात। संस्थान छह प्रकार के होते हैं : 29. समचतुरस्र, 30. न्यग्रोध, 31. स्वाति, 32. कुब्जक, 33. वामन, 34. हुण्डक। संहनन के छह भेद होते है : 35. वज्रर्षभनाराच, 36. वज्रनाराच, 37. नाराच, 38. अर्धनाराच, 39. कीलक, 40. असंप्राप्तसृपाटिका। स्पर्शन आठ प्रकार का है : 41. कर्कश, 42. मृदु, 43. लघु, 44. गुरु, 45. स्निग्ध, 46. रूक्ष, 47. शीत, 48. उष्ण। रस के पाँच भेद हैं : 49. मधुर, 50. आम्ल, 51. कटु, 52. तिक्त, 53. कषाय। वर्ण के पाँच भेद हैं : 54. शुक्ल, 55. रक्त, 56. नील, 57. पीत, 58. कृष्ण। गन्ध दो हैं : 59. सुगन्ध, 60. दुर्गन्ध। आनुपूर्वी चार हैं; 61. नरकगत्यानुपूर्व्य, 62. तिर्यग्गत्यानुपूर्व्य, 63. मनुष्यगत्यानुपूर्व्य, 64. देवगत्यानुपूर्व्य। 65. एक उपघात। 66. एक परघात। 67. एक अगुरुलघु। 68. एक उच्छ्वास। 69. एक आतप। 70. एक उद्योत। विहायोगति अथवा आकाशगति दो हैं : 71. प्रशस्त विहायोगति, 72. अप्रशस्त विहायोगति, 73. प्रत्येक शरीर, 74. त्रस, 75. पर्याप्त, 76. बादर, 77. शुभ, 78. स्थिर, 79. सुस्वर, 80. सुभग, 81. आदेय, 82. यश:कीर्ति, 83. साधारण शरीर, 84. स्थावर, 85. अपर्याप्त, 86. सक्ष्म, 87. अशभ, 88. अस्थिर, 89. दःस्वर, 90. दुर्भग, 91. अनादेय, 92. अयश:कीर्ति, और 93. तीर्थकरत्व, नाम कर्म के ये तिरानबे उत्तर भेद हैं। इनके फल नामों पर से जाने जा सकते हैं। उदाहरणार्थ-जिस कर्म के उदय का फल भवान्तर में जाना हो वह गति-कर्म है। उन गतियों में जो सदृशता होती है उसके कारण कर्म को जाति कहते हैं। जिस कर्म के उदय का फल यह हो कि आत्मा शरीर उत्पन्न हो वह कर्म शरीर-कर्म है। अंगोपांग की रचना होने में जो कर्म सहायक होता है वह अंगोपांग कर्म है। तैजस और कार्मण शरीर में अंगोपांग नहीं होते। तीन ही शरीर में अंगोपांग की रचना होती है, इसीलिए अंगोपांग कर्म के तीन ही भेद माने जाते हैं।
गोत्रकर्म के उत्तर दो भेद
गोत्रकर्म द्विधा ज्ञेयमुच्च-नीच-विभेदतः। अर्थ-गोत्रकर्म दो प्रकार का है, एक ऊँच गोत्र और दूसरा नीच गोत्र । इन कर्मों के फल के अनुसार जीव ऊँचकुली, नीचकुली माना जाता है। सन्तान परम्परा से चले आने वाले जीवाचरण का नाम गोत्र है। अन्तराय कर्म के उत्तर पाँच भेद
स्याद दान-लाभ-वीर्याणां परिभोगोपभोगयोः॥ 40॥
अन्तरायस्य वैचित्र्यादन्तरायोऽपि पञ्चधा। अर्थ-अन्तराय का अर्थ यहाँ पर विघ्न करनेवाला है। विघ्न पाँच बातों में पड़ सकते हैं-देने में,
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org