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274 :: तत्त्वार्थसार
सत्यधर्म का स्वरूप
ज्ञान-चारित्र-शिक्षादौ स धर्मः सुनिगद्यते।
धर्मोपबृंहणार्थं यत् साधु सत्यं तदुच्यते ॥17॥ अर्थ-धर्म की वृद्धि करने के लिए, यथार्थ और धर्मसहित बोलना सत्य कहलाता है। इस सत्यधर्म के व्यवहार करने की आवश्यकता ज्ञान-चारित्र के सिखाने में तथा धर्मोपदेशादि वीतराग कथन करने में लगती है। अपने सधर्मा दीक्षितजनों के साथ अथवा अपने भक्त श्रावकों के साथ बोलना, वह चाहे जितना बोलना हो, परन्तु धर्मानुकूल बोलना चाहिए, सत्य धर्म में इतनी ही बात देखी जाती है। संयमधर्म का स्वरूप
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं प्राणिनां वधवर्जनम्।
समितौ वर्तमानस्य मुनेर्भवति संयमः ॥18॥ अर्थ इन्द्रियों के विषयों से वैराग्य होना और प्राणियों की हिंसा से बचना-बचाना तथा समितिरूप प्रवर्तना यह संयम है। साधु जब तक समितिरूप न प्रवर्तेगा, तब तक इन्द्रिय संयम व प्राणिसंयम पालना कठिन है, इसलिए समितियों का पालना भी आवश्यक है। संयम के इन्द्रिय संयम और प्राणीसंयम ये दो भेद हैं। ___ संयम का जो अर्थ किया है कि 'प्राणीन्द्रियपरिहार' वही ठीक है। प्राणी और इन्द्रिय इन दोनों का परिहार होना-यही लक्षण है। यद्यपि भाषादिनिवृत्ति, कायादि की विशेष यत्नाचाररूप प्रवृत्ति अथवा त्रसस्थावरवध का त्याग, ये जो संयम के स्वरूप बताये वे भी संयम से जुदे नहीं रहते, परन्तु यहाँ पर ये जो संयम इष्ट है उसके अविनाभावी हैं, एक-एक अशंरूप हैं और कुछ कार्यकारण रूप हैं। इसलिए संयम का निर्दोष लक्षण जो कहा है वही है। उपेक्षारूप परिणाम को भी संयम कहते हैं, परन्तु यहाँ जो संयम कहा है वह अपहृत' संयम कहलाता है। इस संयम को विशेष दिखाने के लिए आठ प्रकार की शुद्धि बताई गयी हैं। उनके नाम हैं-1. भावशुद्धि, 2. कायशुद्धि, 3. विनयशुद्धि, 4. ईर्यापथ शुद्धि, 5. प्रतिष्ठापनशुद्धि, 6. शयनासन शुद्धि और 8. वाक्यशुद्धि। इन आठों शुद्धियों के पालने से निराबाध संयम पलता है।
तप धर्म का स्वरूप
परं कर्मक्षयार्थं यत् तप्यते तत्तपः स्मृतम्। अर्थ-परिपूर्ण कर्मक्षय के लिए जो तपा जाए उसे तप कहते हैं। भावार्थ-किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए जब तक कसकर स्वयं श्रम नहीं किया जाता है तब तक फलप्राप्ति नहीं होती। कर्मक्षय के
1. संयमो द्विविध उपेक्षासंयमोऽपहसंयमश्च। रा.वा., वा. 15। 2. तत्प्रतिपादनार्थः शुद्ध्यष्टकोपदेशः। रा.वा., वा. 161
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