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छठा अधिकार :: 277
अदर्शनपरीषह - ये बाईस परीषह विषयसम्बन्धी, सर्वबाधा छोड़कर सहना चाहिए। शान्त चित्त से इन परीषहों को सहन किया जाए तो रागादिनिमित्तों से होनेवाले कर्मास्रव रुक जाते हैं, संवर हो जाता है।
है ।
तप: संवर एवं निर्जरा का हेतु
अर्थ
- तप
तपो हि निर्जरा हेतुरुत्तरत्र प्रचक्ष्यते ।
संवरस्यापि विद्वांसो विदुस्तन्मुख्यकारणम् ॥ 27 ॥
'आगे निर्जरा का हेतु कहेंगे, परन्तु आचार्यों ने उसे संवर का भी मुख्य कारण माना
अनेककार्यकारित्वं न चैकस्य विरुध्यते ।
दाह- पाकादि- हेतुत्वं दृश्यते हि विभावसोः ॥28॥
अर्थ - एक चीज अनेक कार्यों को कर सकती है, इसमें कुछ विरोध नहीं है। यह देखा जाता है कि जिस अग्नि से दाह होता है उसी से पाक भी हो जाता है । इसी प्रकार संवर का तथा निर्जरा का तप ही एक कारण हो सकता है।
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अनुप्रेक्षा
अनित्यं शरणाभावो भवश्चैकत्वमन्यता । अशौचमास्त्रवश्चैव संवरो निर्जरा तथा ॥ 29 ॥ लोको दुर्लभता बोधेः स्वाख्यातत्वं वृषस्य च । अनुचिन्तनमेतेषामनुप्रेक्षाः प्रकीर्तिताः ॥ 30 ॥
अर्थ- 1. अनित्यता, 2. अशरण, 3. संसार, 4 एकता, 5. अन्यता, 6. अशुचिता, 7. आस्रव, 8. संवर, 9. निर्जरा, 10. लोक, 11. बोधिदुर्लभता और 12. धर्म के स्वरूपवर्णन की श्रेष्ठता - इन बारह विषयों के बार-बार चिन्तन करने को बारह अनुप्रेक्षा कहते हैं । उनके लक्षण इस प्रकार हैं
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अनित्य अनुप्रेक्षा का स्वरूप
क्रोडी करोति प्रथमं जात-जन्तुमनित्यता ।
धात्री च जननी पश्चाद् धिग् मानुष्यमसारकम् ॥ 31 ॥
अर्थ - इस प्राणी को उत्पन्न होते ही प्रथम तो अनित्यता गोद में लेती है और बाद धाय गोद में ले सकती हैं, इसलिए इस असार मनुष्य जन्म को धिक्कार हो ।
अर्थात्, अनित्यता तो किसी भी चीज के उत्पाद होने के साथ ही लगी हुई है। मनुष्य जन्मने के कुछ समय बाद ही माता तथा धाय की गोद में आ सकेगा, परन्तु जो उत्पन्न हुआ है उसका मरना उसी
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माता तथा
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