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272 :: तत्त्वार्थसार
न होनी चाहिए, किसी का गुह्य प्रकाशित न होना चाहिए, निस्सार अथवा अल्पसार न होना चाहिए, कषाय का तथा हास्यादि का सम्बन्ध न होना चाहिए, असभ्यपना न होना चाहिए, अधर्मोपदेश न होना चाहिए, देश - काल के अयोग्य न होना चाहिए, अतिशय निन्दा तथा स्तुति नहीं होनी चाहिए, इत्यादि दोष टालकर बोलना भाषासमिति है ।
एषणासमिति का लक्षण
पिण्डं तथोपधिं शय्यानुद्गमोत्पादनादिना । साधोः शोधयता शुद्धा ह्येषणासमितिर्भवेत् ॥ १॥
अर्थ - एषणासमिति का अर्थ भोजन में निर्दोषता से प्रवर्तना है । उद्गम - उत्पादनादि भोजन के दोष यति के आचार में लिखे हैं, उन्हें टालकर पिंड, उपधि तथा शय्या की शुद्धि रखते हुए भोजन ग्रहण करने से साधु की एषणासमिति सुधरती है।
आदाननिक्षेपणसमिति का लक्षण
सहसा-दृष्ट-दुर्मृष्टाप्रत्यवेक्षण - दूषणम् ।
त्यजतः समितिर्ज्ञेयाऽऽदाननिक्षेपगोचरा ॥ 10 ॥
अर्थ - धरने, उठाने में सावधानी से प्रवर्तन को आदाननिक्षेपण समिति कहते हैं। किसी चीज का धरना या उठाना थोड़ा-सा ही देखकर करें, न देखते हुए न करें, ठीक झाड़े पोंछे बिना न करें। इन सब में सावधानी रखते हुए तत्सम्बन्धी दोषों को टालते हुए साधु को धर्मोपकरणादि धरने- उठाने चाहिए ।
उत्सर्गनिक्षेपसमिति का लक्षण
समितिर्दर्शितानेन प्रतिष्ठापनगोचरा ।
त्याज्यं मूत्रादिकं द्रव्यं स्थण्डिले त्यजतो यतेः ॥ 11 ॥
अर्थ - किसी शुद्ध भूमि पर मलमूत्रादि का क्षेपण करना, यह साधु की प्रतिष्ठापन समिति अथवा उत्सर्ग समिति कहलाती है।
समितियों के पालने का फल
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इत्थं प्रवर्तमानस्य, न कर्माण्यास्त्रवन्ति हि असंयमनिमित्तानि ततो भवति संवरः ॥ 12 ॥
अर्थ - इस प्रकार पाँच समितियों के अनुसार प्रवर्तने वाले साधु के असंयमनिमित्तक कर्म नहीं आते, इसलिए संवर हो जाता है।
दश धर्मों के नाम
क्षमा- मृवृजुते शौचं ससत्यं संयमस्तपः । त्यागोऽकिञ्चनता ब्रह्म धर्मो दशविधः स्मृतः ॥ 13 ॥
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