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268 :: तत्त्वार्थसार
प्रदेशबन्ध की टिकने की अवधि को स्थिति कहते हैं। प्रदेश जिन स्वभावों को साथ लिये बँधते हैं उनका नाम प्रकृति है । फलदान का जो तारतम्य होता है उसे अनुभाग कहते हैं । बन्ध के ये चार प्रकार हुए। प्रदेशबन्ध का मुख्य कारण योग है। वह जैसा तीव्र, मन्द या मध्यम वेगरूप रहता है वैसा ही प्रदेशबन्ध हीनाधिक' बँधता है, यदि योग तीव्र हो तो प्रदेश बहुत बँधेंगे। यदि योग मध्यम या जघन्य हो तो प्रदेशों की संख्या भी मध्यम या जघन्य होगी, इसीलिए काययोग या मनोयोग, वचनयोग में से किसी योग की जहाँ पर अधिक सम्भावना होती है, वहाँ पर ही प्रदेशबन्ध सबसे अधिक होता है, परन्तु यह ध्यान रहे कि योग जघन्य भी हो तो भी अनन्तानन्त प्रदेश के भीतर जितनी संख्या कम हो सकती है उतनी कम प्राप्त होगी परन्तु अनन्त संख्यातासंख्यात आदि प्रदेश किसी समय भी प्राप्त नहीं होते। प्रदेशों की संख्या इतनी कम कभी नहीं होती । दशवें गुणस्थान के ऊपर जहाँ शेष सर्व कर्मों का बन्ध रुक जाने पर केवल सातावेदनीय का बन्ध रह जाता है वहाँ भी प्रदेश प्रति समय अनन्तानन्त ही आते हैं। वह योग
योग के भेद
शुभाशुभोपयोगाख्यनिमित्तो द्विविधस्तथा । पुण्यपापतया द्वेधा सर्वं कर्म प्रभिद्यते ॥ 51 ॥
अर्थ-योग शुभ और अशुभ ऐसे दो प्रकार का है। शुभ परिणामों के होने पर जो आत्मप्रदेश में चंचलता होती है वह शुभ योग कहलाता है। अशुभ परिणामों के द्वारा योग उत्पन्न होता है उसे अशुभ योग कहते हैं । अर्हन्त भक्ति, श्रुत में विनय इत्यादि शुभ मनोयोग हैं। इनसे उलटे हिंसा, चोरी, मैथुन इत्यादि अशुभ काययोग हैं। असत्य व कठोर वचन इत्यादि अशुभ वचन हैं। वध का विचार व ईर्ष्या इत्यादि अशुभ मनोयोग हैं। इन शुभाशुभ योगों के द्वारा जो कर्मबन्ध होता है। उनमें से कुछ पुण्यरूप और कुछ पापरूप हैं 1
उच्चैर्गोत्रं शुभायूंषि सद्वेद्यं शुभनाम च ।
द्विचत्वारिंशदित्येवं पुण्यप्रकृतयः स्मृताः ॥ 52 ॥
अर्थ - उच्चगोत्र एवं देवायु, मनुष्यायु, तिर्यगायु- ये तीन शुभायु, तथा साता वेदनीय, देवगत्यादिक सेंतीस नाम कर्म की शुभ प्रकृति ये सब मिलकर ब्यालीस पुण्यकर्म माने गये हैं ।
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1. इन चार स्पर्शो में से भी एक-एक स्कन्ध में दो-दो ही स्पर्श रह सकते हैं। चार बताये हैं वे नानास्कन्धों की अपेक्षा से ठीक हैं। जैसे कि किसी में शीत होगा तो उष्ण न होगा परन्तु स्निग्ध और रूक्ष में से एक स्पर्श रहेगा। स्निग्धरूक्ष में से भी जहाँ स्निग्ध होगा वहाँ रूक्ष न रहेगा परन्तु शीतोष्ण में एक रह सकता है। इस प्रकार एक एक स्कन्ध में दो-दो ही स्पर्श रहेंगे । परमाणु में जो 'अविरुद्धस्पर्शद्वयम्' इस वचन से दो-दो अविरुद्धस्पर्श बताये हैं वे ही कार्मण वर्गणाओं में सम्भव होते हैं। क्योंकि परमाणु में जो सूक्ष्मता थी वह यहाँ तक बनी हुई है । जहाँ पर यह सूक्ष्मता हटकर स्थूलता आती है वहीं पर शेष चार स्पर्श हो सकते हैं।
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