________________
पाँचवाँ अधिकार :: 269
पापकर्मों के नाम
नीचै-र्गोत्रमसद्वेद्यं, श्वभ्रायुर्नाम चाशुभम्।
द्वयशीतिर्घातिभिः सार्धं पापप्रकृतयः स्मृताः॥ 53॥ अर्थ-नीचगोत्र, असातावेदनीय, नरकायु, नरकगत्यादि अशुभ नामकर्म चौंतीस तथा घातिकर्म की पैंतालीस-ये सब मिलकर बियासी कर्म प्रकृति पापरूप हैं। बन्ध तत्त्व को जानने का फल
इत्येतद् बन्धतत्त्वं यः श्रद्धत्ते वेत्त्युपेक्षते।
शेषतत्त्वैः समं षड्भिः स हि निर्वाणभाग् भवेत्॥ 54॥ अर्थ-इस प्रकार इस बन्धतत्त्व को शेष छह तत्त्वों के साथ-साथ जो श्रद्धान करता है, जानता है और उपेक्षा धारण करता है वही निर्वाण प्राप्त कर सकता है। इति श्री अमृतचन्द्राचार्य रचित तत्त्वार्थसार में बन्धतत्त्व का कथन करनेवाला
धर्मश्रुतज्ञान हिन्दी टीका में पाँचवाँ अधिकार पूर्ण हुआ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org