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पाँचवाँ अधिकार : 251
जा सकता है, क्योंकि किसी की तरफ उन्मुखता पैदा होना, इसमें उन्मुखता न होने की अवस्था से तो कुछ विशेषता अवश्य है और विशेषता जो होती है वह किसी एक प्रकार की ही नहीं होती, किन्तु सर्व उन्मुखताओं की अवस्था एक तरह की रहती है उसे निष्कारण हुई भी नहीं कह सकते हैं, क्योंकि, सामने का पदार्थ उसका निमित्त मौजूद है। सामने के पदार्थ नाना तरह के होते हैं, परन्तु उन्मुखता सर्वदा एकसी ही होती है, इसलिए यह मानना पड़ता है कि उस उन्मुखता का कारण तो सामने का पदार्थ ही है । उस पदार्थ की कोई भी विशेषता उसका कारण नहीं है, किन्तु सर्व पदार्थगत जो कोई महासाधारण धर्म है वह उसका कारण हो सकता है। यदि किसी प्रकार की पदार्थ सम्बन्धी विशेषता उसका कारण होती तो उस दर्शन में नाना प्रकार उत्पन्न होते, परन्तु दर्शन में तो सदा समानता रहती है। अतः उसका जनक, सर्वपदार्थगत महासामान्य जो एक धर्म है वही हो सकता है। बस, यही कारण है कि दर्शन का स्वरूप सत्तालोचन कहा जाता है । वास्तव में आलोचन तो वहाँ हो ही नहीं सकता है, परन्तु उन्मुखता के लिए अवलम्बन सत्ता धर्म है, इसलिए सत्ता को आलोचक और दर्शन को आलोचन कहा गया है।
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वास्तव में यदि दर्शन में किसी का आलोचन होता तो दर्शन का ज्ञान की तरह प्रतिपादन भी होना सम्भव हो जाता। जैसे कि घट में ज्ञान को 'घटोऽयं' या 'यह घट है' ऐसी आकृति बनाकर दिखा सकते हैं। वैसे दर्शन किसी भी पदार्थ का हुआ हो, परन्तु उसे दिखा नहीं सकते हैं। कुछ लोग दर्शन को भी 'कुछ है' ऐसे शब्दों से कहा करते हैं, परन्तु अनध्यवसाय ज्ञान को इन्हीं शब्दों से उल्लिखित करना पड़ता है । अब कहिए, दर्शन में व अनध्यवसाय ज्ञान में क्या अन्तर रहा ?
अन्तर है, वह यह कि अनध्यवसाय के 'कुछ है' इस शब्द का मतलब जानी हुई वस्तुओं में से अनिश्चित वस्तु और दर्शन का 'कुछ है' इस शब्द का अर्थ 'सर्वथा न जानी हुई कुछ वस्तु' ऐसा होता है। भावार्थ, अनध्यवसाय में जानी हुई- अनुभव की हुई बहुत-सी वस्तुओं में से कोई है ऐसा भास होता है और दर्शन समय यद्यपि किसी का भास नहीं होता तो भी उन्मुखता का अवलम्बन कुछ होना ही चाहिए यह अनुमान का वाक्य वहाँ उत्पन्न होता है । यद्यपि शब्दाकृति दोनों की समान है, परन्तु विवक्षा भिन्न-भिन्न है अथवा वास्तव में बोलने वाले का अभिप्राय जुदा-जुदा है ।
यहाँ तक के विचार से यह बात सिद्ध हुई दर्शन को निराकार कहा, इसलिए वह किसी विषय का ग्राहक नहीं है परन्तु उसका अवलम्बन महासत्ता धर्म है, इसलिए उसे सत्तालोचनरूप कहते हैं । दर्शन का स्वरूप उन्मुखता है, इसलिए दर्शन मिथ्या नहीं हो सकता है।
ऐसा अविनाभाव सम्यक्त्व व चारित्र में नहीं है । सम्यक्त्व हो जाने पर भी विरति या संयम बहुतों को जल्दी उत्पन्न नहीं होता है। यही कारण है कि एकबार सम्यक्त्व हो जाने पर भी चिरकाल तक कुछ प्राणी संसार में परिभ्रमण करते हैं।
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इसलिए सम्यक्त्व व चारित्र के घातक मोहकर्म की तरह ज्ञानावरण- दर्शनावरण को एक मूल प्रकृति नहीं रखा। दूसरा कारण यह भी है कि हम जिसको ज्ञान कहते हैं उसके सिवाय दर्शन को दूसरे दर्शनकारों ने भी जुदी और विलक्षण अवस्था मानी है। उसे वे निर्विकल्पक ज्ञान- शब्द से कहते हैं, परन्तु ज्ञान से पूर्वक्षण में वह एक निर्विकल्पक या निराकार चैतन्य परिणाम होता अवश्य है ऐसा मानते हैं । उसको ज्ञान कहना चाहे ठीक न हो, परन्तु चेतना के निराकार व साकार ऐसे दो प्रकार के पर्याय मानने की पद्धति प्राचीन दर्शनकारों
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