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250 :: तत्त्वार्थसार
उत्तर- सत्तालोचन शब्द का अर्थ यदि सत्ता प्रतिबोध माना जाए तो प्रतिरोध साकार होगा और साकार ज्ञान ही हो सकता है अथवा, प्रतिबोध, ज्ञान, आलोचन इत्यादि शब्द ज्ञान के ही वाचक हैं। ज्ञान का तथा साकार बनने का अर्थ यह है कि वह किसी वस्तु को जानता है। जबकि दर्शन भी एक महासामान्यरूप सत्ता को जानता है तो वह भी साकार व ज्ञान क्यों न होगा ? ऐसा विवेचन करने पर ज्ञान व दर्शन में भेद सिद्ध होगा तो ज्ञान के इतर उत्तरभेदों की तरह होगा जो कि निरुपयोगी है। यदि ऐसा ही अन्तर्गत भेद हो तो मूल प्रकृतियों में ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये दो घातक कर्म जुदे - जुदे मानने की कोई आवश्यकता नहीं थी, इसलिए मूल भेदों में दो भेद रखने से यही बात जान पड़ती है कि ज्ञान, दर्शन यह दोनों भेद किसी विशेष प्रयोजन के लिए माने गये हैं और लक्षण - स्वरूप दोनों के भिन्न हैं अर्थात् ज्ञान साकार व वस्तुग्राही है तो दर्शन वस्तु का अग्राही और निराकार है। दर्शन ऐसा होकर भी ज्ञान के साथ में रखा जाता है, चेतनागुण का पर्याय माना जाता है और मूल घातक कर्म में उसके घातनेवाली एक स्वतन्त्र प्रकृति भी मानी गयी है, इसलिए उसका स्वरूप चेतना से सम्बन्ध रखनेवाला अवश्य है और वह क्या है ? इस का उत्तर
किसी पदार्थ को जानने की योग्यता प्राप्त होने पर जो आत्मा की उस पदार्थ की तरफ उन्मुखता, प्रवृत्ति अथवा इतर विषयों से हटकर उस विवक्षित पदार्थ की तरफ उत्सुकता प्रकट होती है वही दर्शन है । वह उत्सुकता होती चेतना में ही है, परन्तु तबतक पदार्थ का थोड़ा-सा अंश भी जानने में नहीं आता है। उदाहरणार्थ, एक मनुष्य भोजन करने में लग रहा है और उसका मन या बुद्धि भी उसमें आसक्त है। अकस्मात् उसकी इच्छा हुई कि बाहर कोई पुकार तो नहीं रहा है यह समझ लूँ । अथवा किसी की आवाज कान में पड़ने से उसका उपयोग उस भोजन की तरफ से हटकर शब्द की तरफ लग जाता है। पूर्व विषय से हटना और उत्तर विषय की तरफ उत्सुक होना, यह विषय ज्ञान का पर्याय नहीं हो सकता है । इसी चेतना पर्याय को दर्शन कहते हैं । इसके ठीक उत्तर समय जो कुछ ग्रहण हो जाता है वह ज्ञान है । प्रथम समय में ग्रहण हो जाए तो वह चाहे कैसा ही सामान्य हो, परन्तु ग्रहण का आकार अवश्य बदलेगा । यदि आकार बदला तो वह प्राप्त हुआ आकार चेतना को साकार बना देगा। चेतना का साकार होना सो ज्ञान है, न कि दर्शन । जबकि प्रथम समय में दर्शन होना माना जाता है तो वह दर्शन किसी का भी ग्राहक नहीं हो सकता है ऐसा मानना ही पड़ेगा। दूसरे, यह भी विचार करना चाहिए कि प्रत्येक कारण जो कार्य को पैदा करते हैं सो प्रथम ही समय में नहीं कर देते । प्रथम समय में तो कार्य का पूर्वरूप होता है और फिर कार्य उत्पन्न होता है। पूर्वरूप को कारण दशा में गर्भित किया जाता है । यदि कार्य प्रथम ही समय मे होने लगे तो कार्य-कारण का भेद कहना ही सम्भव न होगा। इसी प्रकार दर्शन व ज्ञान में भी पूर्वापरपने का भेद है। अर्थात् ज्ञान चेतना का कार्य है और दर्शन ज्ञान की पूर्वदशा है। ज्ञान जानने रूप कार्य है तो दर्शन रूप पूर्वदशा में यह जानने की क्रिया प्रकट हुई नहीं कही जा सकती है। पूर्वोत्तर दशाओं का कारण कार्य मानना हो तो दर्शन को भी कारण कहा जा सकता है। तब फिर कारण के समय कार्य की अवस्था व्यक्त हुई मानना ठीक नहीं है और कार्य की अवस्था का यदि अर्थ विचारा जाए तो जानना ही है, इसलिए दर्शन के समय जानना किस प्रकार माना जा सकता ? जब कि दर्शन में जानना ही है ? जब कि दर्शन में जानना असम्भव है तो 'सत्तालोचन' जो दर्शन का स्वरूप बताया जाता है उसका अर्थ 'विषय की तरफ उन्मुख होना' ही करना चाहिए । उन्मुख होना यह निश्चयात्मक नहीं है, इसलिए ज्ञान नहीं हो सकता, परन्तु अभावरूप भी नहीं कहा
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