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252 :: तत्त्वार्थसार
में थी यह बात सिद्ध हो जाती है। जबकि इन दोनों प्रकारों को समुच्चय से दिखाने की इच्छा हो तो उपयोग शब्द से वैसे भी कहते हैं, परन्तु इसके प्रसिद्ध दो भेदों के घातक कर्मों को मूल दो भेदों में मान लेना कुछ अनुचित नहीं है, क्योंकि, इनके आवरणों के मूल भेद मानने से यह बात सिद्ध हो जाती है कि दोनों का बन्ध समान समयों तक होगा और उनके उदय तथा क्षयोपशम से होने वाले कार्य भी दोनों ही समान समय तक रहेंगे। जो मूल भेद में नहीं हैं उनके कार्यों में परस्पर सहभाव का कोई नियम नहीं रहता है, इसीलिए मोहनीयकर्म के दोनों भेदों का नाश भिन्न समय में होता है और उदय का भी सहभाव रहना निश्चित नहीं है, परन्तु ज्ञान दर्शन के आवरणों का उदय तथा क्षयोपशम भी सहभावी रहता है और क्षय भी सहभावी होता है, इसलिए इन दोनों की घातक दो मूल प्रकृति मानना आवश्यक है।
यहाँ तक आठ कर्मों की प्रकृति व आवश्यकताएँ दिखा चुके । अब इस बात का विचार करते हैं बन्ध आत्मा को किस-किस रूप में वास्तविक बाँधता है और आठ कर्मों से हीनाधिक कर्म भी हो सकते हैं या नहीं ?
कर्मों से वास्तविक बन्ध दो बातों का होता है : एक तो आत्मप्रदेशों का और दूसरा ज्ञान गुण का । प्रदेशबन्ध तो आठों कर्मों का एकसा ही होता है। यदि भेद है तो अनुभागबन्ध में। हम यहाँ दो कार्यों में जो बन्ध का प्रयोजन बता रहे हैं उसका भी मतलब यह है कि अनुभाग आठों कर्मों के जुदे-जुदे हैं, परन्तु असली घात को दो ही अनुभाग करते हैं, एक मोह, दूसरा ज्ञानावरण। मोह आत्मद्रव्य की अवस्था को स्वाभाविक न रखकर अस्वस्थ या मलिन करता है, एक तो यह कार्य हुआ। फिर ज्ञान या चेतनागुण को विकृत करनेवाला ज्ञानावरण कर्म है, दूसरा यह कार्य हुआ । दर्शनावरण ज्ञान की ही उन्मुखता को रोकता है, इसलिए ज्ञानावरण का ही सहायक है । अन्तराय है वह ज्ञानावरण के कार्य का भी सहायक है और मोहनीय के कार्य का भी सहायक है। जबकि मोह के प्रभाव से आत्मा मलिन होता है तब वह सभी कार्य करने में असमर्थ होता है, इसलिए आत्मप्रदेशों से होने वाला कार्य जो हलना चलना, खाना, पीना इत्यादि है वह पूर्ण शक्तियुक्त नहीं रह सकता है और ज्ञानगुण भी अपना पूर्णकार्य दिखा नहीं सकता है। बाकी तो कर्मों के कार्य रहे वे इन्हीं दो कार्यों के सहायक हैं। वीर्यान्तराय तो ज्ञान की और प्रदेशों की शक्ति को कम करता है, इसलिए उसे जुदा मानने की आवश्यकता नहीं ही है और दर्शनावरण को जुदा न गिनने का हेतु पहले ही कह चुके हैं। यद्यपि दर्शनावरण व अन्तराय के भिन्न-भिन्न कार्य होते हैं, परन्तु मुख्य कार्य देखें तो ज्ञान व मोह के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, इसलिए चार घातियों के दो कार्य रहे ।
अब रहे अघाति कर्म सो अघातियों के कार्य तो जुदे-जुदे अवश्य होते हैं अथवा, यों कहिए कि अघातियों के पिंड तो जुदे-जुदे अवश्य होते हैं, परन्तु वे सब मोह के उदय में ही अपने कार्य दिखा सकते हैं अर्थात् मोह के द्वारा जब आत्मा मलिन होता है तब नीच - ऊँचपने का व्यवहार करता है, इसलिए गोत्रकर्म की आवश्यकता को उत्पन्न कर लेता है। गोत्रकर्म जो नीच ऊँचता को सिद्ध करता है वह आत्मा को प्रत्यक्ष कराए बिना कैसे कर सकता है ? इसलिए सूक्ष्म आत्मा को स्थूल बना देनेवाला अर्थात् शरीर सम्बन्ध करा देनेवाला नामकर्म आवश्यक जान पड़ जाता है। नामकर्म से जो शरीर होता है उसे आत्मा से सदा जोड़ रखनेवाला आयुकर्म है । यदि आयुकर्म न माना जाए तो प्राप्त हुए शरीर से आत्मा बाहर चाहे जब हो तो उसे कौन रोकेगा ? मोहकर्म या सभी जो कर्म हैं वे तो सीधे आत्मा को ही बाँधते हैं
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