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242 :: तत्त्वार्थसार
घटपटादि स्थूल पदार्थों की तरह होना, आत्मा में स्थूलता व सूक्ष्मता नहीं मानी जाती है। तो ? रूपादिगुणों का अत्यन्ताभाव होने से सूक्ष्मता है और कर्मसंयोग व शरीरसंयोग के हो जाने से उपचरित स्थूलता मानी जाती है। पुद्गल के परमाणुओं में रूपादि गुण तो रहते हैं, परन्तु इन्द्रियगोचर नहीं होते, इसलिए सूक्ष्मता मानी जाती । बड़े पुद्गल स्कन्धों में रूपादिगुण इन्द्रियग्राह्य रहते हैं, इसलिए वह पुद्गल स्थूल माने जाते हैं इस कथन से यह मालूम हो जाएगा कि पुद्गल की स्थूलता तथा सूक्ष्मता दूसरी तरह की है और आत्मा की सूक्ष्मता, स्थूलता दूसरी तरह की है। आत्मा की सूक्ष्मता तो वास्तविक हो सकती है; क्योंकि, स्थूलता के कारण रूपादियोग उसमें नहीं रहते, परन्तु स्थूलता शरीर के सम्बन्ध से औपचारिक ही हो सकती है। क्योंकि, रूपादिगुणों की सत्ता हो तो वह कभी इन्द्रियग्राह्य होने पर स्थूल रूप धारण कर सकेगी, किन्तु जहाँ रूपादि का अत्यन्ताभाव होगा वहाँ वास्तविक स्थूलता आ ही कहाँ से सकती है ? इस प्रकार जबकि आत्मा में वास्तविक स्थूलता नहीं होती है तो सूक्ष्मता का वास्तविक विघात हुआ कैसे माना जा सकता है ? इसीलिए सूक्ष्मता का घातक नामकर्म को मानना औपचारिक है। इस उपचार का निमित्त शरीर सम्बन्ध होने से जिस प्रकार आत्मा को मूर्तिक मानना औपचारिक है वैसे ही स्थूल मानना भी औपचारिक है । उस उपचार की कल्पना का प्रयोजन क्या है ? नामकर्म के सम्बन्ध से जीव की अवस्था बदलती है क्या ? यह बात दिखाना इस उपचार का प्रयोजन है। इस नामकर्म के उदय से शरीर का सम्बन्ध होना मुख्य कार्य है, परन्तु आत्मा में स्थूलता प्राप्त होना औपचारिक ही है। इस बात में एक दूसरा भी प्रमाण है । वह यह कि, कर्म के बन्धन से आत्मा में मूर्तिकता होना मानना सर्वथा व वास्तविक जैसे नहीं है वैसे ही स्थूलता भी सर्वथा वास्तविक नहीं हो सकती है। जब वास्तविक स्थूलता नहीं हुई तो सूक्ष्मता का घात भी नामकर्म द्वारा वास्तविक हुआ नहीं मानना चाहिए।
अब रहा अघाति गोत्रकर्म । यह अगुरुलघु गुण को घातता है। यह घातना भी औपचारिक है । गोत्रकर्म का वास्तविक कार्य जीव को ऊँचा-नीचा ठहराना है। इसी को दूसरे शब्दों में कहें तो यों कह सकते हैं कि अगुरुलघुगुण का वह घात करता है। अगुरुलघु गुण वह है जो कि सर्व जीवाजीव द्रव्य मात्र का साधारण गुण । उसका कार्य यह है कि अपने-अपने द्रव्य के अन्तर्गत जितने गुण हों उनको सीमा के अनुसार छह प्रकार से घटाता बढ़ाता रहे। उस गुण का कभी घात नहीं हो सकता है। वह गुण जिस प्रकार शुद्ध अवस्था में रहता है उसी प्रकार अशुद्ध अवस्था में भी रहता है और अपना काम करता है । परनिमित्तक व स्वनिमित्तक पर्यायों में से स्वनिमित्तक पर्याय होना तथा कराना उसी का कार्य है। वे स्वनिमित्तक पर्याय अशुद्ध अवस्था के समय में भी वस्तुओं में होते ही हैं। यदि अगुरुलघु गुण का गोत्रकर्म घात करता होता तो अशुद्ध संसारी जीव में स्वनिमित्तक पर्याय होना ही बन्द हो जाती। साथ ही, अगुरुलघु गुण का एक यह भी कार्य है कि वस्तु या गुण को सर्वथा नष्ट न होने दे। यदि उस गुण का घात हो गया तो जीव का सर्वनाश होने से भी कौन रोक सकता है ? परन्तु वस्तुमात्र में स्वनिमित्तक पर्याय होने से रुक जाना भी असम्भव है और किसी वस्तु का सर्वनाश होना भी असम्भव है, इसलिए मानना पड़ता है कि इस गोत्रकर्म का वह घात नहीं कर सकता है। तो ? सन्तानक्रम से प्राप्त हुए ऊँच-नीच आचरण को गोत्र कहते हैं । यह ऊँच-नीचता वास्तविक जीव का स्वभाव नहीं है। जीव सर्व चैतन्यादि समशक्ति के धारण करनेवाले हैं । उनमें नीच - ऊँचता का मानने का कोई हेतु ही नहीं है, परन्तु शरीर के होने से
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