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246 :: तत्त्वार्थसार
अभाव भी होना ही चाहिए, जिसे चारित्र-प्राप्ति कहते हैं, परन्तु ऐसा होता नहीं है। सम्यक्त्व प्राप्त होने पर भी चौथे गुणस्थान में चारित्र प्राप्त नहीं होता, इसीलिए चौथे गुणस्थान को अव्रतरूप कहते हैं। थोड़े से व्रत हो जाने पर पाँचवाँ गुणस्थान होता है। पूर्ण व्रत होने पर व्रतीसंज्ञा होते हुए भी यथाख्यात चारित्र प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार विचारने से मालूम होगा कि सम्यक्त्व क्षायिकरूप की पूर्णता प्राप्त होने पर भी चारित्र की प्राप्ति व पूर्णता में विलम्ब लगता है, इसलिए सम्यक्त्व व चारित्र में और मिथ्यात्व व कषायों में एकता का कार्यकारणपना मानना कैसे ठीक हो सकता है?
उत्तर-मिथ्यात्व न रहने पर जो कषाय रहते हैं वे मिथ्यात्व के साथ रहने वाले अतितीव्र अनन्तानुबन्धी कषायों के समान नहीं होते किन्तु अतिमन्द हो जाते हैं, इसीलिए वे कषाय भी चाहे बन्ध करते रहें परन्तु दीर्घ संसार के कारणभूत बन्ध को नहीं होने देते हैं इसीलिए ज्ञानचेतना भी सम्यग्दर्शन होते ही शुरू हो जाती है जो बन्ध नाश का कारण है। इससे पहले मिथ्यात्व रहते समय जो चेतना होती है वह कर्म चेतना व कर्मफलचेतना होती है जो पूर्णबन्ध का कारण मानी जाती है। सारांश यह कि कषाय तो सम्यक्त्वी में भी शेष रहते हैं, परन्तु मिथ्यात्व के नाश होने से अतिमन्द हो जाते हैं और कुछ अंशों में अबन्ध व निर्जरा के सहायक बन जाते हैं, इसलिए मिथ्यात्व व कषाय का कुछ अविनाभाव जरूर है।
अब रही यह बात कि मिथ्यात्वनाश के साथ ही कषायों का पूर्ण नाश क्यों नहीं होता? सो इसका उत्तर यह है कि कषाय व मिथ्यात्व सर्वथा एक चीज तो हैं ही नहीं। सामान्य स्वभाव दोनों का एक है, परन्तु विशेष अपेक्षा से कुछ भेद भी है; नहीं तो दो नाम ही जुदे-जुदे क्यों होते; और दोनों के जनक कर्म भी जुदे-जुदे क्यों होते? देखिए, “विशेषसामान्य की अपेक्षा से भेदाभेद दोनों ही यहाँ मानने चाहिए।" यह भाव दिखाने के लिए ही तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता ने सम्यक्त्वमोहनीय व चारित्रमोहनीय ये दो भेद कर दिये हैं। जब कि उत्तर में दो भेद हैं ही तो उनके नाश का ठीक अविनाभाव कैसे हो सकता है? हाँ, परन्तु मूल कारण न रहने पर चारित्रमोहनीय का टिकाव फिर भी अधिक नहीं रहता है। साथ नहीं तो भी कुछ ही काल में चारित्रमोहनीय भी नष्ट हो ही जाता है।
अथवा, यों कहना चाहिए कि चारित्रमोहनीय मिथ्यात्व के अभाव में रहता तो है, परन्तु जब तक चारित्रमोहनीय रहता है तबतक सम्यक्त्व की भी पूर्ति नहीं हो पाती है—क्षायिक सम्यक्त्व भी केवलसम्यक्त्व नाम नहीं पाता है जो कि रत्नत्रय की पूर्णता का एक चिह्न है। भावार्थ. कछ संस्कारवश हो या चारित्रमोह के ही सम्बन्ध से हो, चारित्रमोहनीय के तथा घाति कर्मों के समय तक सम्यक्त्व पूर्ण नहीं होता।
भावार्थसम्यक्त्व की उत्पत्ति से संसार की जड़ तो टूट जाती है, परन्तु इतर कर्मों का तत्क्षण ही सर्वनाश होने का नियम नहीं है। कर्म अपनी-अपनी योग्यतानुसार बँधते व उदय में आते हैं। देखो, मिथ्यात्व का साथी चारित्रमोहनीय भी चालीस कोटा-कोटी सागरपर्यन्त की स्थिति उत्पन्न कर सकता है। मिथ्यात्व सत्तर कोटा-कोटी सागरपर्यन्त की स्थिति बाँध लेता है। इससे भी यह पता लगता है कि मिथ्यात्व ही सब कर्मों से अधिक बलवान् है और दीर्घ तथा असली संसार की स्थापना करता है, इसीलिए वह नष्ट हुआ कि संसार का किनारा समझना चाहिए। साथ ही यह न भूलना चाहिए कि मोह दोनों ही हैं-एक अमर्यादित है तो दूसरा समर्यादित। हाँ, कारण दोनों ही संसार के हैं।
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