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पाँचवाँ अधिकार :: 245 है ? इस अशान्ति में तीन विभागों की कल्पना करनी पड़ती है; एक तो, अशान्ति रूप वेदन, दूसरा उस वेदन की तरफ लगानेवाला या झुकानेवाला कारण, तीसरा उस वेदन का विषय। जो अशान्ति का वेदन है वह तो ज्ञानरूप होने से ज्ञानगुण में गर्भित होगा और उसका कारण ज्ञानावरण का क्षयोपशम होगा। दूसरा प्रकार जो अशान्ति का होगा वह वेदनीय कर्म का कार्य होगा। तीसरा, अशान्ति का प्रकार जो अशान्तिवेदन का विषय है उसे भी अशान्ति ही कहना चाहिए और वह मोहनीय का कार्य समझा जाएगा। इन तीनों अर्थों का संग्रह एक अशान्तिक शब्द में हो सकता है। इन तीनों में से मोहनीय का कार्यरूप जो अर्थ है वह वाच्यरूप अर्थ है और ज्ञान कर अपेक्षा से ज्ञेयरूप अर्थ है। जो ज्ञान उत्पन्न हो उसमें अशान्ति, यह विशेषण होगा, इसीलिए विशेषण निकाल दिया जाए तो ज्ञान ही शुद्ध ज्ञान रह सकता है
और जो विशेषण जुदा किया गया है उसे चाहे शान्ति कहिए या अशान्ति, परन्तु रागद्वेष का ही वह स्वरूप मानना पड़ेगा। रागद्वेष रूप कार्य मोहनीय का है और उसके अनुभव में आत्मा को लगाना सो वेदनीय का कार्य है एवं उसे ज्ञान कहे बिना भी रहा नहीं जा सकता हैं, परन्तु ज्ञान का प्रकाश ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम की आवश्यकता रखता है तभी तो हमने कहा है कि अशान्ति यह तीनों कर्मों का कार्य है, परन्तु जो उस विषय को उत्पन्न करे, मुख्य उसी कर्म को कहना चाहिए और वही आत्मा को असली बाँधनेवाला है। इससे यहाँ तात्पर्य यह लेना कि अशान्ति, मोह, आत्मज्ञानपराङ्मुखता तथा विषयाशक्ति ये सर्व कार्य मोह के ही हैं।
मोह के इन कार्यों को हम दो प्रकार से विभक्त करते हैं : आत्मा से विमुखता और विषयों में प्रवृत्ति । ये दोनों ही बातें वास्तव में तो कोई जुदी-जुदी नहीं हैं; क्योंकि, इनमें एक आत्मसम्बन्धी विकार या अशान्ति का ही निषेध व विधिमुख होकर दिखाया है। आत्मस्वरूप को भूलकर उससे हटना यह निषेधमुखी दोष है और फिर विषयों में रमना यह विधिमुखी दोष है। इन दोनों को एक शब्द से कहना हो तो आत्ममल, आत्मक्षोभ या आत्म-अशान्ति इत्यादि किसी भी शब्द से कह सकते हैं। बस, इसी दोष के पहले भेद को हम मिथ्यादर्शन-शब्द से कहेंगे और दूसरे को कषाय-शब्द से। पहला भेद अधिक बलवान माना जाता है और दसरा कछ कम। कारण यह है कि प्रथम यदि आत्मा को भलकर जीव उससे
तो पीछे विषयासक्ति उत्पन्न होगी। यद्यपि इन दोनों कार्यों में विलम्ब नहीं लगता है तो भी कार्यकारण सबन्ध माना जाता है।
कारण के नाश से कार्य भी नष्ट हो जाता है; इसलिए विषयाशक्ति घटाने से पहले ही आत्मश्रद्धान उत्पन्न करने का आचार्य उपदेश देते हैं। आत्मश्रद्धान और सम्यक्त्व' में कोई अन्तर नहीं है, इसीलिए आत्मश्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं। इसमें यदि अन्तर है तो विषयविषयीपने का है। आत्मश्रद्धान विषयी है और आत्मशुद्धि विषय है। अशुद्धता का श्रद्धान तो सभी को होता है, परन्तु उसकी अशुद्धता मात्र जबतक दिख पडती है तब तक वह मिथ्यादर्शन कहलाता है और शद्धता का जब श्रद्धान होने लगता है तब वही सम्यक्त्व कहलाने लगता है। इसका कहना सुनाना सुगम नहीं है और आत्मशुद्धिरूप सम्यक्त्व एक निर्विकल्प भाव है, इसीलिए इसे साधारण ज्ञान और यावद्वचनों के अगम्य माना है। हाँ, उसी के श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं तो सुगम भी पड़ता है और कुछ दोष भी नहीं आता।
शंका-यद्यपि मिथ्यात्व व कषाय एक ही बात है, इसलिए मिथ्यात्व के नाश होने पर कषाय का
1. तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्। तत्त्वा. सू., अ. 1, सू. 2
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