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244 :: तत्त्वार्थसार
अब रहा वीर्य जो कि अन्तराय' के द्वारा घाता जाता है। वह वीर्यगुण भी सविकल्पक है, क्योंकि; चारित्र की तरह वह भी ज्ञान-दर्शन से जुदा होकर नहीं रहता और न ज्ञानादि धारण के सिवाय उसका दूसरा उपयोग ही है, इसीलिए जैसे चारित्र सविकल्पक है वैसे वीर्य भी सविकल्पक होना चाहिए। ज्ञान का धारना वीर्य और वर्तना चारित्र-ये दोनों समान विषय के धर्म हैं। जो जाननेवाला होगा वह अपनी ज्ञानशक्ति व दर्शनशक्ति को जिस प्रकार जानेगा उसी प्रकार उस ज्ञान की या अपनी वर्तना शक्ति को भी जानेगा और धारणाशक्ति को भी अवश्य जानेगा बस, इसीलिए हम चारों को स्वानुभवगोचर कहते हैं और स्वानुभवगोचर का ही नाम सविकल्पक है। ये चारों शक्तियाँ सविकल्पक हैं, इसीलिए इनके घातक कर्मों को असली घातिकर्म कहते हैं।
इस प्रकार जब आत्मा के चार ही गुण सविकल्पक हैं, सत्ताधारी हैं, वास्तविक हैं तो आठों कर्म घाति किस प्रकार माने जा सकते हैं ? इसलिए आठों गुणों के घातक, आठों कर्मों को मानना एक अपेक्षावश है। वास्तव में चार घाति और चार अघाति ही हैं। अब शंका यह रही कि तीन कर्म तीन गुणों को घातते हैं और मोहनीय सम्यक्त्व तथा चारित्र इन दो गणों को घातता है। तो मोहनीयकर्म के सम्यक्त्व मोहनीय व चारित्र मोहनीय ये दो भेद किये गये हैं, इसलिए मोहनीय को केवल चारित्र का घातक बताना ठीक नहीं है। जब कि मोहनीय दो गुणों का घातक रहा तो चारघाति कर्मों से चार गुणों का घात होना क्यों बताया गया है? उन्हें पाँच गुणों का घात कहना चाहिए? दूसरी शंका यह है कि शुद्ध जीवों के कर्मनष्ट होने पर प्रकट होनेवाले जो आठ गुण कहे हैं उनमें चारित्र को न कहकर सम्यक्त्व को ही कहा है। सो क्यों? वहाँ चारित्र' क्यों छोडा गया? कहीं-कहीं पर चारित्र व सम्यक्त्व में से एक को भी न कहकर सुख गुण का ही उल्लेख किया है। सो क्यों? मोहनीय के विषय में एक चौथी शंका यह हो सकती है कि मोहनीय जबकि सम्यक्त्व व चारित्र इन दो गुणों का घातक है तो मूल प्रकृतियों में उसके दो भेद मानकर कर्म नौ कहने चाहिए थे, परन्तु कहे आठ ही हैं। सो भी क्यों? इस प्रकार मोहनीय के विषय में अनेक शंकाएँ हो सकती हैं।
उत्तर-प्रथम देखना चाहिए कि मोहनीय कर्म का क्या स्वरूप है और वह एक जुदा क्यों माना गया है?
मोहनीय' का कार्य यह है कि वह जीव का निज स्वरूप प्रगट न होने दे-सांसारिक दशा को बढ़ावे। संसारिक दशा का अर्थ यह है कि जीव में आकुलता बढ़े, अशान्ति बढ़े, क्षोभ बढ़े। जबकि विजातीय द्रव्य का मिश्रण होगा तो एकाकी जीव की शुद्धदशा जैसी शान्ति या निराकुलता कैसे रह सकती
1. कथं तेषां (दानादीनां) सिद्धेषु वृत्तिः? परमानन्तवीर्याव्याबाधसुखरूपेणैव तेषां तत्र वृत्तिः । केवलज्ञानरूपेणानन्तवीर्यवृत्तिवत् । सर्वा.सि.,
वृ. 261 2. आवणमोहविग्धं घादी जीवगुणधादणत्तादो। आउगनामं गोदं वेयणियं तह अघादित्ति 17 ॥ गो. क.। 3. सम्मत्तणाण दंसण विरियं सुहमं तहेव अवगहणं। अगुरुलहुमव्वावाहं अट्ठ गुणा होंति सिद्धाणं ॥ 4. अब्भरहिदादु पुव्वं णाणं तत्तो हि दंसणं होदि। सम्मत्तमदो विरियं जीवाजीवगदमिदि चरिमे ।।16 ॥ गो. कर्म.। ___ परमानन्तवीर्याव्यावाधसुखरूपेणैव तेषां तत्र वृत्तिः-सर्वा.सि. पृ. 111, अ. 2 5. अनन्तविज्ञानमनन्तवीर्यतामनन्तसौख्यत्वमनन्तदर्शनम्। बिभर्ति योऽनन्तचतुष्टयं विभुः स नोऽस्तु शान्तिर्भवदुःखशान्तये॥ च.प्र.च.,
आ.वी.। 6. कम्मकयमोहबड्ढियसंसारम्हिय अणादिजुत्तम्हि 11॥ गो. क.। नेवं-यतो विशेषाऽस्ति बद्धाबद्धावबोधयोः। मोहकर्मावृतो बद्ध:
स्यादबद्धस्तदत्ययात्॥ मोहकर्मावृतं ज्ञानं प्रत्यर्थं परिणामि यत्। इष्टानिष्टार्थसंयोगात्स्वयंरज्वविषद्यथा
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