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पाँचवाँ अधिकार : 243
शरीरयुक्त जीव में यह नीच - ऊँचता आरोपित हो जाती है। इसका आरोपण कारण गोत्रकर्म है और सहकारी कारण नामकर्मजनित शरीर है। शरीर है तो शरीर के सम्बन्ध से जीव में दोष प्रकट होंगे। उनके कारण कर्म होने ही चाहिए, क्योंकि कर्म के बिना जीव की विकृत अवस्था होना सम्भव नहीं है, इसीलिए जितने प्रकार के विकार हों उतने ही प्रकार कर्म में मानने पड़ते हैं । यदि ऐसा न होता तो कर्म के शेष भेद करना भी व्यर्थ हो जाता, परन्तु कारण भेद के बिना कार्यों का भेद होना न्यायबाधित है, इसलिए ऊँच-नीचपने का कारण एक जुदा कर्म मानना ही पड़ता |
ऊँच-नीच को गुरुलघु भी कह सकते हैं, इसलिए जिस शुद्ध आत्मस्वरूप में गुरुता तथा लघुता वास्तविक नहीं थी उसमें शरीर के सम्बन्ध से प्राप्त हो गयी - यह अगुरुलघु गुण नहीं समझना चाहिए। क्योंकि, उसका घात होना सम्भव नहीं है । यह अगुरुलघु केवल गुरुलघुत्व की या नीच - ऊँचपने की कल्पना के अभाव का नाम है । जीव में यह गुरुलघुत्व की कल्पना होने का कारण नहीं था, परन्तु बन्धन के वश यह कल्पना हो जाती है। बस, यही अगुरुलघु प्रतिजीवी आपेक्षिक स्वभाव के घात कर देने का अर्थ समझना चाहिए । अब विचारिए कि गोत्रकर्म ने किसका घात किया ? किसी भी सत्तात्मक गुण का घात नहीं किया। गोत्र कर्म ने यदि कुछ किया तो इतना ही कि, जिस आरोप का जीव में नाम भी नहीं था उस जीव में शरीर के सम्बन्ध से वह आरोप प्राप्त करा दिया, इसलिए वास्तव में यह कर्म किसी का घातक नहीं रहा । तो भी इस कर्म की आवश्यकता रही, इसीलिए इसे अघाति कर्म कहते हैं । यदि यह कर्म न माना जाए तो ब्राह्मण की एवं ब्रह्म की सन्तान को ब्राह्मण कहना तथा विशू या वैश्य की सन्तान को वैश्य कहना कैसे संघटित होगा ? क्योंकि, ये शब्द अपत्य के अर्थ में रहते हैं । अपत्य नाम सन्तान का है । सन्तान' परम्परा से हो सकती है । इसलिए यह गोत्रकर्म जो ऊँच-नीचता ठहराता है वह ऊँच-नीचपना रहता जीव के शरीर में ही है, परन्तु सन्तान के सम्बन्ध से। यह गोत्रकर्म जीव विपाकीकर्म माना गया है। जीवविपाकी उसे कहते हैं कि जिस कर्म का फल जीव पर ही प्राप्त है ।
हम यह भी बता चुके हैं कि अघाति कर्मों द्वारा जिन स्वभावों का घात होना लिखा है वे ज्ञानादि गुणों की तरह सविकल्पक नहीं हैं, किन्तु निर्विकल्पक हैं । सविकल्पक तथा निर्विकल्पक गुणों में क्या अन्तर होता है वह देखिए । जिन गुणों का इन्द्रियों द्वारा या स्वानुभव द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता हो उन्हें सविकल्पक गुण कहते हैं, शेष सर्व निर्विकल्पक । पुद्गल के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श का इन्द्रियों से प्रत्यक्ष होता है, इसलिए पुद्गल के ये चार गुण सविकल्पक कहलाते हैं, शेष सब निर्विकल्पक ।
जीव के ज्ञान, दर्शन स्वानुभवगोचर होते हैं, इसलिए सविकल्पक हैं । ज्ञान दर्शन का अर्थ जानना देखना है, परन्तु देखना जानना जहाँ रहता है वहाँ उन्हीं ज्ञानदर्शन - गुणों के वर्तन रूप से हो सकता है, उसी प्रकार उस जानने का वर्तन या चरण भी ज्ञानदर्शन के साथ ही अनुभवगोचर होता है। क्योंकि, जानना, देखना व प्रवर्तना ये तीनों स्वभाव एक ही वस्तु के, एक ही काल में रहनेवाले, एक ही विषयगत धर्म हैं, इसलिए चारित्रगुण भी प्रत्यक्ष हुए बिना नहीं रहता है । ये तीन घातिकर्मों के द्वारा घाते जाते हैं ।
1. संताणकमेणागय जीवायरणस्स गोदमिदि सण्णा । उच्च णीचं चरणं उच्चं णीचं हवे गोदं ॥17॥ गो. क.
2. वेद णियगोदघादीणेकावण्णं तु णामपयडीणं । सत्तावीसं चेदे अट्ठत्तरि जीववाईओ ||41 || तित्थयरं उस्सासं बादरपज्डत्त सुस्सुरादेज्जं । जस तसविहायसुभगदु चउगई पणजाई सगवीसं ॥50॥ गो. क.
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