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44 :: तत्त्वार्थसार
पड़ती है, इसलिए यह जुदा लक्षण कहा है। दूसरी बात यह भी है कि उन भावों का वर्णन विस्तार से किया गया है, किन्तु लक्षण ऐसा होना चाहिए कि शीघ्रता से व स्वयं समझ लेने योग्य हो। ऐसा संक्षिप्त व स्वयंप्रसिद्ध यदि जीव का कोई लक्षण हो सकता है तो वह उपयोग ही है।
उपयोग के भेद
साकारश्च निराकारो भवति द्विविधश्च सः।
साकारं हि भवेज्ज्ञानं निराकारं तु दर्शनम्॥10॥ अर्थ-उस उपयोग के साकार और निराकार ऐसे दो प्रकार हैं। साकार ज्ञान को कहते हैं और निराकार दर्शन को कहते हैं।
कृत्वा विशेषं गृह्णाति, वस्तुजातं यतस्ततः।
साकारमिष्यते ज्ञानं ज्ञानयाथात्म्यवेदिभिः॥11॥ अर्थ-यदि किसी की आकृति कही जा सकती है जो वह विशेष पदार्थ ही होगा। सामान्य पदार्थ की आकृति अनियत होने से कहने व समझाने में नहीं आ सकती, और ज्ञान से पदार्थों को विशेष-विशेष करके जाना जाता है, इसीलिए उसे साकार कहते हैं। ज्ञान का स्वरूप जिन्होंने वास्तविक रूप से जान लिया है वे ऋषिजन ज्ञान को इसलिए साकार नहीं कहते कि वह पदार्थ के विशेषाकार के तुल्य स्वयं होता है। ज्ञान अमूर्त आत्मा का गुण है, उसमें ज्ञेय पदार्थों के आकार उतरने की आवश्यकता नहीं है। केवल विशेष पदार्थ उसमें भासने लगते हैं-यही उसकी आकृति मानने का मतलब है। ज्ञान में आकृति वास्तविक नहीं मानी जा सकती, किन्तु ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध के कारण ज्ञेय का आकृति-धर्म ज्ञान में उपचारनय से भेद किया जाता है। इस आरोप का फलितार्थ इतना ही समझना चाहिए कि पदार्थों की विशेषाकृति निश्चय करनेवाले चैतन्य-परिणाम को हम ज्ञान कहें।
यद्विशेषमकृत्वैव गृह्णीते वस्तुमात्रकम्।
निराकारं ततः प्रोक्तं दर्शनं विश्वदर्शिभिः॥12॥ अर्थ--पदार्थों की विशेषता न समझकर जो केवल सामान्य का अथवा सत्ता-स्वभाव का ग्रहण करता है उसे दर्शन कहते हैं। उसे निराकार कहने का भी यही प्रयोजन है कि वह ज्ञेय वस्तुओं की आकृति-विशेष को समझा नहीं पाता। इसका विषय जो सामान्य है उसे सत्ता कहते हैं, इसीलिए दर्शन को कहीं-कहीं पर 'सत्तावलोकन' नाम भी दिया गया है। सत्ता विश्वाकार के तुल्य है, इसलिए उसका आकार नियमित नहीं किया जा सकता और उसका ग्राहक दर्शन भी निराकार ही माना जाता है। ज्ञान-दर्शन के बाद भी होता है व ज्ञान के उत्तरोत्तर भी होता है, परन्तु दर्शन सबके प्रारम्भ में ही होता है। एक विषय का कुछ भी ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर जब तक उसकी श्रृंखला टूटती नहीं है, तब तक फिर बीच में दर्शन नहीं हो पाता।
ज्ञानमष्टविधं ज्ञेयं मतिज्ञानादिभेदतः। चक्षुरादिविकल्पाच्च दर्शनं स्याच्चतुर्विधम्॥13॥
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