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128 :: तत्त्वार्थसार
अर्थ-जैसे कोई मनुष्य बहुत से वृक्षों की एक पंक्ति में से पार होना चाहता हो तो वह क्रम से एक-एक वृक्ष के पास होकर गमन करता जाएगा। चलते-चलते जो वृक्ष उस मनुष्य के पीछे रह गये हों उनको तो वह प्राप्त हो चुका और जिनके पास में अभी है उनको प्राप्त हो रहा है, एवं जो वृक्ष अभी आगे हैं उनको वह प्राप्त होगा। ऐसे भूत, भविष्यत्, वर्तमान सम्बन्धी संयोग की अपेक्षा से जुदेजुदे विशेषण उस मनुष्य में जोड़े जा सकते हैं। इसी प्रकार काल द्रव्य भी कालाणुओं की पंक्ति का स्पर्श करते हुए क्रम से भूत, भविष्यत्, वर्तमान नामों को पाते हैं।'
गुरुओं का इस भूतादि नामकरण के विषय में ऐसा उपदेश है कि द्रव्यों को कालाणुओं का स्पर्श तथा वर्तना स्वभाव के पर्यायों का अनुभव होने से यथाक्रम भूत, भविष्यत् व वर्तमान विशेषण प्राप्त होते हैं । द्रव्यों के पर्यायों में भूतादि व्यवहार होने का यही असाधारण हेतु है। भावार्थ काल की गति अविच्छिन्न सदा चलती ही रहती है। उसका गति-प्रवाह होने के लिए अन्य सहायकों की आवश्यकता नहीं पड़ती है और इतर कारणों का सम्पर्क न होने से औपाधिक कोई विशेष नाम भी काल को प्राप्त नहीं हो सकते हैं। काल कहना ही निरुपाधि नाम दिख पड़ता है। भूतादिक नाम कालनिमित्तक केवल वस्तु-पर्यायों के हो सकते हैं।
लोगों की प्रवृत्ति भी ऐसी ही देखने में आती है। औपाधिक विशेष नाम उसी चीज में सम्भव हो सकते हैं जो स्वयं अकेली भी आप प्रसिद्ध हो और फिर कदाचित् उसका दूसरे किसी पदार्थ से सम्बन्ध जुड़ा हो। जो स्वयं प्रसिद्ध न हो, किन्तु इतर प्रसिद्ध पदार्थों की किसी अवस्था का उत्पादन होने से प्रसिद्ध होता है उसमें औपाधिक विशेष नाम कहाँ से प्रसिद्ध हो सकता है? क्योंकि उसकी सिद्धि होना भी स्वयं अनुमानाधीन है। ऐसे पदार्थ का नाना प्रकार से लोगों में उपयोग होना सम्भव है। यही अवस्था काल की है। काल इसलिए माना जाता है कि जीवादि वस्तुओं के पर्यायों को भूत-वर्तमानादि विशेषण युक्त कहना काल के बिना नहीं बनता, इसीलिए उक्त वस्तुओं के पर्यायों में भूतादि नाम जोड़ना तो मुख्य व्यवहार तो हो सकता है, परन्तु जो कोई काल को ही भूतादि नाम लगाते हैं, वह उनका औपचारिक प्रयोग है। क्योंकि काल स्वयं अप्रसिद्ध है; और इतर वस्तुएँ स्वयं प्रसिद्ध हैं, इसलिए इतर वस्तुओं में लोगों की औपचारिक आदि अनेक कल्पनाएँ जुड़ना युक्त है। पर निमित्त से सिद्ध हुए नामों को औपाधिक या औपचारिक नाम कहते हैं। औपचारिक कल्पनाएँ भी परनिमित्त से ही होती हैं।
काल द्रव्य का स्पष्टीकरण : इस काल द्रव्य की कल्पना दो तरह की है—निश्चय और व्यावहारिक। मूल तत्त्व तो निश्चय काल कहा जाता है। उसके अधीन जो भूतादि व्यवहार होता है वह व्यावहारिक काल है। व्यावहारिक काल का दो तरह अर्थ होता है। कितने ही लोग निश्चय काल को वस्तु-पर्यायों को उत्पन्न करने का कारण मानते हैं और उससे उत्पन्न हुए वस्तु-पर्यायों को व्यवहार काल—ऐसा कहते हैं। कितने ही लोग, वस्तु-पर्याय में काल की जिस रूप से सहायता लगती है उसे व्यवहार काल कहते हैं। इस दूसरे अर्थ की तरफ लक्ष्य दिया जाए तो व्यवहार काल भी मुख्य काल का ही पर्यायरूप हो जाता है। उसमें भूतादिक नाम जोड़ना केवल गौण पक्ष है। उसे केवल काल तथा समयादि शब्दों से ही सम्बोधन बन सकता है। इस, दूसरे अर्थ के अनुसार व्यवहार काल को भूतादि 1. यथा वृक्षपङ्क्तिमनुसरतो देवदत्तस्यैकैकतरं प्रति प्राप्तः प्राप्नुवन् प्राप्स्यन् व्यपदेशस्तथा तत्कालाणूननुसरतां द्रव्याणां क्रमेण
वर्तनापर्यायमनुभवतां भूतवर्तमानभविष्यद्व्यवहारसद्भावः।-रा.वा. 5/22, वा. 25
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