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230 :: तत्त्वार्थसार
मिथ्यात्व रहने पर तो अविरति रहती ही है, परन्तु मिथ्यात्व के छूट जाने पर भी अविरति रह सकती है। मिथ्यात्व न रहने पर जीव सम्यक्त्वी हो जाता है परन्तु अविरति फिर भी चारित्रमोह का उदय हो तो विषयवासना हटने पर हटती है । सो भी अविरति का पूर्ण अभाव हो जाए और महाव्रत प्रकट हो जाए, यह किसी विरले को ही होता है। नहीं तो, बहुत हुआ तो एकदेश विरति होती है जिसे कि अणुव्रत कहते हैं। यह बारह प्रकार की अविरति जो भगवान ने पाप का कारण कही है वह जब तक छूटती नहीं तब तक अविरतिजन्य कर्मबन्ध होता ही रहता है। असंयम भी इसी का नाम है ।
प्रमाद का स्वरूप-
शुद्धयष्टके तथा धर्मे क्षान्त्यादिदशलक्षणे ।
योऽनुत्साहः स सर्वज्ञैः प्रमादः परिकीर्तितः ॥ 10 ॥
अर्थ- आठ शुद्धि और दश धर्मों में उत्साह न रखना- उसे सर्वज्ञदेव ने प्रमाद कहा है, अर्थात् विरति या संयम हो जाने पर भी जो उसके सँभालने में आलसी रहना, असावधानी करना, अनुत्साह रखना प्रमाद है।' मिथ्यात्व व अविरति के रहते हुए तो प्रमाद रहता ही है, परन्तु विरति हो जाने पर भी प्रमाद जल्दी जाता नहीं है, इसीलिए अविरति के बाद में यह बन्ध का कारण कहा गया है और अविरति से जुदा है।
भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्याशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, आसनशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, वाक्यशुद्धि, ये आठशुद्धियाँ हैं । इनका अर्थ शब्दों से मालूम होता है। शुद्धि का वर्णन आगे संवर के प्रकरण में भी आएगा। इन शुद्धियों के रखने से संयम निर्मल होता है । दश धर्मों में अनुत्साह रखने को प्रमाद कहा है, परन्तु यह उपलक्षण है । संवर, निर्जरा के जो कारण हैं वे सभी धर्मों की तरह सँभालकर पालनीय हैं, इसीलिए समिति, गुप्ति, परीषहजय इत्यादि संवर के कारणों में जो अनुत्साह होता है वह सभी प्रमाद है।
शुद्धि व धर्मादि संवर के कारणों में रहनेवाले अनुत्साह को प्रमाद कहने से यह बात सिद्ध होती है कि विरति हो जाने पर भी प्रमाद रह सकता है। छठे गुणस्थान में अविरति नष्ट हो चुकी, परन्तु प्रमाद विद्यमान है जिससे कि विरति बनी रहने पर भी भोजन - गमन - शयन- संघ परिरक्षण - गुरुविनयादि कामों में कभी-कभी असावधानी हो जाती है और उसके दूर करने के लिए प्रतिक्रमणादि प्रायश्चित्त कर्म कहे हैं।
1. 'प्रमादोऽनवधानता' इति अमर कोषः, प्रमादः कुशलेष्वनादरः । सर्वा.सि., वृ. 730
2. अविरतेः प्रमादस्य चाविशेष इति चेन्न, विरतस्यापि प्रमाददर्शनात् । रा.वा., 8/1, वा. 32
3. आज्ञाव्यापादनक्रिया अनाकांक्षक्रिया इत्यनयोः प्रमादस्यान्तर्भावः (सर्वा.सि., वृ. 618) अर्थात् प्रमाद का स्वरूप यों समझना चाहिए कि आस्रव प्रकरण में जो आज्ञाव्यापादन क्रिया तथा अनाकांक्षा क्रिया बताई है वही प्रमाद है। आज्ञाव्यापादनादि क्रियाएँ असावधानी रखने से ही होती हैं, इसीलिए यह सिद्ध होता है कि विरति हो जाने पर बन्ध का कारण प्रमाद विद्यमान रह सकता है ।
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