________________
कषाय का विवरण
पाँचवाँ अधिकार : 231
षोडशैव कषायाः स्युर्नोकषाया नवेरिता । ईषद्भेदो न भेदोऽत्र कषायाः पञ्चविंशतिः ॥ 11 ॥
अर्थ - तारतम्य के भेद से अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन ऐसे कषाय के भेद चार हैं और स्वरूप भी कषाय 'चार ही हैं- क्रोध, मान, माया व लोभ । इसलिए कषायों के चार स्वरूपों को तारतम्य के चार भेदों से गुणा करने पर कषाय सोलह हो जाते हैं, 1. अनन्तानुबन्धी क्रोध, 2. अनन्तानुबन्धीमान, 3. अनन्तानुबन्धी माया, 4. अनन्तानुबन्धी लोभ, 5. अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, 6. अप्रत्याख्यानावरण मान, 7 अप्रत्याख्यानावरण माया, 8. अप्रत्याख्यानावरण लोभ, 9. प्रत्याख्यानावरण क्रोध, 10 प्रत्याख्यानावरण मान, 11 प्रत्याख्यानावरण माया, 12 प्रत्याख्यानावरण लोभ, 13. संज्वलन क्रोध, 14. संज्वलन मान, 15. संज्वलन माया, 16. संज्वलन लोभ । आत्मा के शुद्ध चैतन्य भाव का घात या कषन जिस विपरीत भाव से हो वह कषाय है । यह कषाय का लक्षण क्रोध करने में भी विद्यमान है, मान में भी है, मायाचार के समय भी है, लोभ में भी है।
नौ नोकषाय भी जुदे माने जाते हैं— 1. हास्य, 2. रति, 3. अरति, 4. शोक, 5. भय, 6. जुगुप्सा, 7. स्त्रीवेद भाव 8. पुरुषवेद भाव 9. नपुंसकवेद परिणाम । कषाय व नोकषायों को जुदा गिनने से सर्वकषाय पच्चीस हो जाते हैं। नोकषाय भी है तो कषाय ही, परन्तु थोड़ा-सा यह अन्तर है कि कषाय होने पर जीव जिस प्रकार दुःखी या अशान्त बन जाता है, वैसा हास्यादि नोकषाय रहते नहीं होता, इसीलिए हास्यादि करने पर भी वह अपने को सुखी समझता है कषाय का वेद कारण हैं एवं वेद मार्गणा का वेद कार्य है। दूसरी बात यह है कि कषाय जैसे दूसरे का अहित करा सकते हैं वैसा अहित हास्यादि नोकषायों के रहने से नहीं होता । अरति तथा भय के होने पर यदि अरति व भय के कारणों को हटाने का प्रयत्न किया जाए तो उस समय क्रोधादि कषाय प्रकट हो जाते हैं। यह छोटा-सा भेद कोई प्रधान कारण इस बात में नहीं हो सकता है कि नोकषायों को कषायों में समाविष्ट न करने दें, इसीलिए कषाय सर्व पच्चीस हैं और सभी में आत्महिंसा करने का सामर्थ्य रहता है ।
T
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद इन तीन या एक दो बन्ध कारणों के रहते हुए तो कषाय रहता ही है, परन्तु ये तीनों कारण न रहें तो भी इस कषाय कारण का अभाव सर्वत्र नहीं हो पाता है, इसलिए इस कारण को तीनों के बाद में लिखा है । उत्तरोत्तर कारण पूर्व कारणों के रहते हुए तो रहते ही हैं, परन्तु न रहते हुए भी रहते हैं । अनन्तानुबन्धी कषाय मिथ्यात्व के रहते हुए रहता है । अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण कषाय, अविरति रहते हुए व मिथ्यात्व न रहते हुए भी रहता है। संज्वलन कषाय, मिथ्यादर्शन, अविरति के नष्ट जाने पर रह सकता है, किन्तु विषय सद्भाव' रहता है। अर्थात् मिथ्यात्वादि जहाँ हों वहाँ कषाय अवश्य होगा, परन्तु कषाय के रहते मिथ्यात्वादि रहते भी हैं और नहीं भी रहते
Jain Educationa International
1. मिथ्यादर्शनादीनां बन्धहेतुत्वं समुदाये च वेदितव्यम् । तत्र मिथ्यादृष्टेः पंचापि समुदिता बन्धहेतवः । सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यमिथ्यादृष्ट्यसंयतसम्यग्दृष्टीनामविरत्यादयश्चत्वारः । संयतासंयतस्याविरतिमिश्राः प्रमादकषाययोगाश्च । प्रमतसंयतस्य प्रमादकषाययोगाः । अप्रमत्तादीनां चतुर्णां कषाययोगौ । शान्तक्षीणकषायसयोगकेवलिनामेक एव योगः अयोगकेवली अबन्धहेतुः । रा. वा., 8/1, वा. 31 2. नहि सर्वाणि मिथ्यादर्शनादीनि एकस्मिन्नात्मनि युगपत्संभवन्ति । नापि हिंसादयः सर्वे परिणामाः । वही
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org