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पाँचवाँ अधिकार :: 237
में आता है वह कहा नहीं जा सकता है तो भी वैसी विशेषता रहती अवश्य है। देखिए, खांड का रस कहने में तो 'मीठा' इतना ही कहा जा सकता है। उस रस में जो विशेषता रहती है वह पूरी कहने में नहीं आती तो भी खाने से उसका अनुभव अवश्य होता है। एक खांड खाने में कुछ कम स्वादिष्ट होती है और दूसरी कुछ अधिक। स्वाद की वह हीनाधिकता कहने में नहीं आ सकती है तो भी वह हीनाधिकता की विशेषता रहती अवश्य है। बस, इसी प्रकार प्रकृतिरूप ज्ञानावरणादिकों के एक-दो पिंड में जो फल देनेवाली तरतमरूप परस्पर की विशेषता होती है वह अनुभाग है, और उसे भी शब्द से कह नहीं सकते हैं पर वह है अवश्य। ठीक ही है, जो एक से दसरे में फल देने की विशेषता है उसे शब ठीक कैसे कहा जा सकता है। इस प्रकार विचार करने से मालूम पड़ता है कि प्रकृति व अनुभाग में सामान्य विशेषता का ही अन्तर है, इसलिए रस विशेष को आचार्यों ने अनुभाग कहा है। यदि अनुभाग व प्रकृतियों के नाम देखें तो एक-से ही लगेंगे; जैसे ज्ञानावरण की प्रकृति क्या है ? ज्ञान का अवरोध। इसी प्रकार ज्ञानावरण में अनुभाग क्या है? वह किसी ज्ञानविशेष का अवरोध। इन उदाहरणों के देखने से मालूम होगा कि प्रकृति व अनुभाग में केवल सामान्य विशेष का अन्तर है, किन्तु स्वभाव या सामर्थ्य एक ही है। शंका-जबकि प्रकृति व अनुभाग में अधिक अन्तर न होकर केवल सामान्य विशेष का ही अन्तर है तो दो भेदों में जुदा दो दिखाने की क्या आवश्यकता थी? केवल प्रकृति मानने से काम चल सकता था, क्योंकि जहाँ किसी विषय में सामान्य विशेषता का केवल अन्तर होता है वहाँ उस विषय के दो नाम कभी नहीं रखे जाते हैं। सामान्य विशेषता प्रत्येक विषय में रहती ही है, इसलिए उसका ज्ञान न कहने पर भी हो ही जाया करता है।
उत्तर-यद्यपि दो भेद किये बिना भी दोनों का कुछ ज्ञान हो जाता है, परन्तु कर्मों का वर्णन, कर्मों के नाम रखे बिना नहीं हो सकता है और अनुभव का स्वरूप नामों के अनुसार न होकर कुछ विचित्र ही होता है, इसलिए दोनों को जुदा-जुदा कहने की आवश्यकता पड़ी। कर्मों का वर्णन न करें तो उपदेश का मार्ग कैसे प्रवृत्त हो? और वर्णन, नाम रखे बिना कैसे हो सकता है? इसलिए कर्मों के प्रकृति रूप नाम रखे गये हैं और 'प्रकृति' यह कर्म वर्णन का एक जुदा विभाग करना पड़ा है। कर्मों का वर्णन करना ही बन्धप्रकरण दिखाने का प्रयोजन नहीं है। तो? कर्म का बन्धन होने से जीव को जो अशुद्धता का फल भोगना पड़ता है वह विचित्र है। नामों के शब्दार्थ ज्ञान से भी वह अतिसूक्ष्म है। कहने में नहीं आता है। प्रकृति का एक ही नाम जिन असंख्यातों तरतम अनुभागों में लग सकता है वे ही अनुभाग भोगने में असंख्यातों तरह के होते हैं। फलोद्गम एक-एक अनुभाग के अनुसार ही होते हैं न कि प्रकृति के अनुसार। यदि प्रकृति के अनुसार फलोदगम होते तो प्रकति के असंख्यातों ही भेद हैं. न कि अनन्त, इसलिए संसार की सर्व विचित्रता असंख्यात ही प्रकार की होती, न कि अनन्त प्रकार की, परन्तु संसार की विचित्रता अनन्तों तरह है, इसलिए वह असंख्यात प्रकार की प्रकृति से जन्य नहीं हो सकती है। कारण ही जहाँ अनन्त प्रकार के न होंगे वहाँ कार्य अनन्त प्रकार के कैसे हो सकते हैं ? इसलिए प्रकृति के अतिरिक्त 'अनुभाग' इस नाम का जुदा वर्णन करने योग्य बन्धतत्त्वाधिकार का अन्तराधिकार रखना पड़ा। प्रकृति के जुदा कहने का प्रयोजन कह ही चुके हैं । इस प्रकार 'प्रकृति' व 'अनुभाग' ये दो यहाँ बन्धतत्त्व के विभाग आवश्यक हुए।
अब रहे स्थितिबन्ध व प्रदेशबन्ध। सो प्रकृति व अनुभाग जैसे कोई बन्धन प्राप्त पुद्गलपिंड नहीं हैं, किन्तु उन पुद्गलपिंडों के सामर्थ्य विशेष हैं, तो भी वे सामर्थ्य ही कर्मों को इतर पुद्गल पर्यायों
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