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चतुर्थ अधिकार :: 183
यद्यपि केवल स्त्रियों के देखने, सुनने से या पुष्ट भोजन करने से ब्रह्मचर्य मलिन नहीं होता, परन्तु यहाँ मना किया है वह इस अभिप्राय से कि विकार - वासनापूर्वक देखने से ब्रह्मचर्य अवश्य मलिन होगा। जब मन में विकार हो तो पुष्ट' रस भी सहायक हो जाता है ।
परिग्रहत्यागव्रत की भावना
मनोज्ञा अमनोज्ञाश्च ये पञ्चेन्द्रियगोचराः ॥ 68 ॥ रागद्वेषोज्झनान्येषु पञ्चमे पञ्च भावना ।
अर्थ - पाँचों ही इन्द्रियों के विषय पाँच हैं। कोई विषय इष्ट या रुचिकर होते हैं और कोई अनिष्ट या अरुचिकर होते हैं । रुचिकर विषयों में रुचि या आसक्ति नहीं करना, अरुचिकर लगें तो अरुचि नहीं करना - ये ही परिग्रहत्याग की पाँच भावना हैं ।
हिंसादि पापों का स्वरूप- चिन्तवन
इह व्यपायहेतुत्वममुत्रावद्यहेतुताम्॥ 69 ॥ हिंसादिषु विपक्षेषु भावयेच्च समन्ततः । स्वयं दुःखस्वरूपत्वाद् दुःखहेतुत्वतोऽपि च ॥ 70 ॥ हेतुत्वाद् दुःखहेतूनामिति तत्त्वपरायणः । हिंसादीन्यथवा नित्यं दुःखमेवेति भावयेत् ॥ 71॥
अर्थ-हिंसादिक पाँचों पाप वर्तमान भव में साक्षात् अनर्थकारी हैं, भयजनक हैं, किसी प्रकार भी सुखहेतु नहीं हैं और परलोक में दुर्गति के कारण हैं। ऐसा हिंसादि पापों के विषय में चिंतवन करना चाहिए। देखो ! इस भव में हिंसक मनुष्य का सभी लोगों से वैर बढ़ जाता है। हिंसा करनेवाले को कभी चैन नहीं मिलता। कभी-कभी तो अन्याययुक्त हिंसा करनेवाले फाँसी पर लटका दिये जाते हैं । कभीकभी व्याघ्रादि का शिकार करनेवाले स्वयं मारे जाते हैं। झूठ बोलनेवाले का विश्वास उठ जाता है। भयंकर झूठ बोले तो राजा के द्वारा दंडनीय होता है। झूठ बोलने से दूसरे जिन लोगों का कुछ नुकसान होता है वे उसके वैरी बन जाते हैं। चोरी करने से जो दुःख प्राप्त होते हैं वे प्रसिद्ध ही हैं। कामी मनुष्य कार्यकार्य- विचारशून्य हो जाता है। उसे कोई पास में रहने नहीं देता । उसकी निन्दा का कुछ ठिकाना ही नहीं है । यदि परस्त्री गमन करे तो राजा द्वारा दंडनीय भी वह होता है । प्रमेह, गर्मी आदि रोग भोगकर अकाल ही में मर जाता है। धन-धान्यादि परिग्रहधारी मनुष्य की तो उस पक्षी की - सी हालत होती है। जिसके पास कि कुछ मांस का टुकड़ा हो, उसे जैसे दूसरे पक्षी झपटते हैं वैसे ही, उसकी सम्पत्ति को लोग झपटते हैं। धन के सँभालने में उसे अति दुःखी होना पड़ता है । यह सब तो इसी भव की कथा है, परलोक में जो दुःख भोगने पड़ते हैं उन्हें परमात्मा ही जान सकता
1. पणिदरसभोयणेण य तस्सुवजोगे कुसीलसेवाए। वेदस्सुदीरणाए मेहुणसण्णा हवदि एवं ॥ 137 ॥ गो. जी. ॥
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