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208 :: तत्त्वार्थसार
इसका उत्तर यों हो सकता है-मद्यादिकों का त्याग तो मूलगुणों के समय में ही हो जाना चाहिए, परन्तु रात्रि में बना हुआ भोजन दिन में खानेवाले को जो मांसभक्षण का सूक्ष्म दोष प्राप्त होता है, आसव'
औषधियों के खाने से जो मद्यपान का सूक्ष्म दोष प्राप्त होता है, और लेपनादि औषधियों में मधु को काम में लाने से जो मधुभक्षण का सूक्ष्मदोष प्राप्त होता है वह दोष भोगोपभोगपरिमाण व्रतवाले मनुष्य को अवश्य टालना चाहिए। इस अभिप्राय को दिखाने के लिए भोगोपभोगपरिमाण में मद्यादि-त्याग का वर्णन है। फलितार्थ यह हुआ कि मूलगुणों में स्थूल त्याग होता है और भोगोपभोग-परिमाण में सातिचार सूक्ष्म का भी त्याग हो जाता है।
राजवार्तिक' में भी मद्यमांसादि का त्याग भोगोपभोगपरिमाण के अन्तर्गत बताया है।
पेट में जाने पर जो भोजन शीघ्र न पच सकता हो उसे कुछ लोग दुष्पक्व कहते हैं, परन्तु यह अर्थ दुष्पक्व शब्द का नहीं है, किन्तु अभिषवनाम का जो अतिचार लिखा है उसका यह अर्थ होता है। यदि दुष्पक्व शब्द का ऊपर वाला अर्थ मानना इष्ट होता तो शब्द दुष्पक्व नहीं बन सकता था, किन्तु दुष्पच' शब्द हो जाता। दुष्पच शब्द का ही वैसा अर्थ होता है।
अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार
काल-व्यतिक्रमोऽन्यस्य व्यपदेशोऽथ मत्सरः।
सचित्ते स्थापनं तेन पिधानं चेति पञ्च ते॥97॥ अर्थ-अतिथि का अर्थ साधु या तपस्वी होता है। साधुओं को भोजन देना सो अतिथिसंविभाग कहलाता है। यह भी गृहस्थियों का सात शीलों में अन्तिम एक शीलवत है। भोजन शुद्ध देना और समय पर देना, भक्तिपूर्वक देना, यही इस व्रत की शुद्धि है। शुद्ध, भक्तिपूर्वक तथा यथासमय न देना यह इस व्रत की मलिनता है। इस मलिनता को पाँच तरह का गिनाया है-1. कालव्यतिक्रम', 2. अन्यव्यपदेश, 3. मत्सरता, 4. सचित्तनिक्षेप, 5. सचित्तपिधान। __(1) साधुओं का नौ-दश-ग्यारह बजे तक दिन में आहार के लिए भ्रमण होता है तब भोजन के
1. 'द्रवः सौवीरादिकोऽभिषवः' अर्थात् अभिषव नाम अतिचार का अर्थ राजवार्तिक पृ. 425 में सौवीरादि द्रव वस्तुओं को अभिषव
बताया है। सौवीरादिक आसव के भेद हैं और आसव का अर्थ मद्य है, परन्तु सौवीरादिक वे आसव होते हैं कि जिनको औषधियों में गिना जाता है। उनके सेवन को मूल ग्रन्थकार अतिचार कहते हैं, और समन्तभद्र स्वामी भोगोपभोगपरिमाण में ही इनका संग्रह कराकर पाँच अतिचार दूसरे ही गिनाते हैं-यह बात कही जा चुकी है। यह बात भोगोपभोग परिमाण सम्बन्धी मद्यत्याग की हुई। मद्य के समान नवनीत, नीम का फूल, केवडा की वाल इत्यादि चीजें भी त्रसघातादि दोष छोड़ने के लिए छोड़नी चाहिए।
समन्तभद्र स्वामी का यह उपदेश है। 2. भोगसंख्यानं पंचविधं त्रसघातप्रमादबहुवधानिष्टानुपसेव्यविषयभेदात्।-रा.वा. 7/21, वा. 27 3. द्रवो वृष्यं वाऽभिषवः । रा. वा. 7/35, वा. 5 4. ननु दुष्पच इति प्राप्नोतीति तन्न, कि कारणम् ? कृच्छ्रार्थविवक्षाभावात् ॥-रा.वा. 7/35, वा. 6 5. अनगाराणामयोग्यकाले भोजनं कालातिक्रमः।-रा.वा. 7/36, वा. 5 6. अन्यदातृदेयार्पणं परव्यपदेशः। अन्यत्र दातार: सन्ति दीयमानोप्ययमन्यस्येति वा अर्पणं परव्यपदेशः।-रा.वा. 7/36, वा. 3
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