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226 :: तत्त्वार्थसार
कथन त्रिकालाबाधित और सब का हितकर नहीं हो सकता है; क्योंकि इच्छाएँ नाना और एक दूसरे के विरुद्ध हो सकती हैं। इसलिए सबका अभीष्ट हित कैसे साधा जा सकता है ? ऐसे शास्त्रों की मान्यता होना कठिन है । अतः शास्त्र को सर्वज्ञ के उपदेशानुकूल होना चाहिए।
सर्वज्ञ का उपदेश वास्तविक तथा सभी जीवों के लिए हितसाधक होता है, क्योंकि सर्वज्ञ को चराचर सभी ज्ञात होते हैं, इसलिए उसका उपदेश विरोध - बाधा से रहित होता है और उसी के उपदेश को स्वतः प्रमाणता प्राप्त हो सकती है। शास्त्र को स्वतः प्रमाण माने बिना जो धर्म का निश्चय करना चाहते हैं, उनके लिए यह कहना चाहिए कि वे अपनी बुद्धि को प्रमाण मानते हैं, परन्तु हम कह चुके हैं कि अल्पज्ञों की बुद्धि सर्व स्वरूप का निश्चय नहीं कर सकती है, इसीलिए जो विषय उनके समझने में न आया हो वह सूक्ष्मतत्त्व स्वबुद्धि प्रमाणवादियों को ज्ञात नहीं हो सकता । इस प्रकार पूर्ण धर्म के स्वरूप में विशृंखला उत्पन्न हो जाती है और धीरे-धीरे वास्तविक धर्म इसी प्रकार छिप भी जाता है। यह दोष स्वबुद्धि प्रमाणवादियों के अनुसार संसार में फैलता है। यदि आगम को स्वतः प्रमाण माना जाए तो यह दोष उत्पन्न नहीं हो सकता है। यदि किसी आगम प्रमाणवादी के जानने में कोई धर्म का स्वरूप या उपदेश न आया हो तो भी वह उसे प्रमाण मानता है जिससे कि सत्यधर्म की श्रृंखला विस्खलित नहीं हो पाती, इसीलिए यह कहा गया है कि जैन धर्म के स्वरूप में शंका रखना मिथ्यात्व दोष है, जिससे कि स्वपर का अहित होना सम्भव है और आत्मज्ञान से जो विमुखता हो रही है उसका पोषण होता है।'
विपरीतमिथ्यात्व का लक्षण
ग्रन्थोऽपि च निर्ग्रन्थो ग्रासाहारी च केवली । रुचिरेवंविधा यत्र विपरीतं हि तत्स्मृतम् ॥ 6 ॥
अर्थ – ग्रन्थ नाम परिग्रह का है । सग्रन्थ अर्थात् सपरिग्रह होने पर भी निर्ग्रन्थ या निष्परिग्रह मान लिया जाए तो ऐसी श्रद्धा को विपरीतमिथ्यात्व कहते हैं । इसी प्रकार भोजनरूप परवस्तु में प्रवृत्ति करते हुए को भी केवलज्ञानी मानना विपरीतमिथ्यात्व का एक उदाहरण है।
निर्ग्रन्थ हो तो वस्त्रादि परिग्रह रखने के लिए उत्सुक किस प्रकार होगा ? यह परस्पर विरोध है । जो वस्त्रादि परिग्रह रखता हो वह परिग्रह से विरक्त नहीं हो सकता है और जो परिग्रह को परकीय जानकर उससे विरक्त हो वह वस्त्रादि परिग्रह ग्रहण करने में प्रवृत्त नहीं हो सकता । इस प्रकार ये परस्पर विरोधी बातें होकर भी एक जीव में रहते हुए मानना यही बुद्धि का विपर्यास है। ऐसा बुद्धि-विपर्यास आत्मज्ञान से बहिर्मुख होने का लक्षण है, इसलिए इस विपर्यास रूप बहिर्मुखता का विपरीत मिथ्यात्व यह नाम उचित है।
केवलज्ञान तब होता है जब चारों घातिकर्म नष्ट हो जाते हैं। घातिकर्मों का कार्य यह है कि जीव को परवस्तुओं में मोहित करे, पराधीन करे, परवस्तुओं के बिना निर्वाह नहीं होगा ऐसी भावना उत्पन्न करे, इसलिए जीव जब तक घातिकर्मों के उदयवश रहता है तब तक क्षुधादि दोषों से व्याकुल रहता है और इष्ट संयोग मिलाता रहता है, परन्तु जो मोहादि घातिकर्मों का नाश करके निर्मोह तथा केवलज्ञानी
1. सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभिर्नैव हन्यते । आज्ञासिद्धं तु तद्ग्राह्यं नान्यथवादिनो जिना । आ.प.
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