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224 :: तत्त्वार्थसार
क्रियाकांड को धर्म मानना और वह विपरीत मान्यता क्रियावाद-मिथ्यात्व का अर्थ है। क्रियाकांड की मुख्यता न रखकर ज्ञानमात्र से मुक्ति मानना इत्यादि विचार को अक्रियावाद कहा जाता है। ज्ञानशून्य कायक्लेशादि तप को मुक्ति का कारण मानना सो अज्ञानमिथ्यात्व है। देव-कुदेव, गुरु-कुगुरु एवं धर्मकुधर्म का निर्णय किये बिना उनकी भक्ति और विनय से मुक्ति मानना, सभी धर्मों को तथा देवों को मुक्ति का कारण मानना सो सब वैनयिक मिथ्यात्व है।
क्रियावादियों के चौरासी भेद हैं। उनमें से कांठेविद्धि, कौशिक, हरिमश्रु, माण्डलीक, रोमश, हारित, मुंड, अश्वलायन इत्यादि जो प्राचीन मत हैं वे सब इन्हीं चौरासी भेदों में गर्भित होते हैं। अक्रियावादों के एक सौ अस्सी भेद हैं। मारीचिकुमार, उलूक, माठर, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, मौद्गलायन इत्यादि इनके नाम हैं।
अज्ञानवाद के सड़सठ भेद माने गये हैं। साकल्य, वल्कल, कुंथुवि, सात्यमुग्नि, चारायण, कण्व, मध्यदिन, मोद, पैप्पलाद, वादरायण, वस, जैमिनि इत्यादि उन मतों के नाम हैं।
वैनयिकों के बत्तीस भेद हैं। वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षिणी, सत्यदत्त, व्यासइलापुत्र, औपमन्यु, इन्द्रदत्त, अपस्थूल इत्यादि उनके नाम हैं। ये सब चारों प्रकार के गृहीतमिथ्यादृष्टियों के तीन सौ त्रेसठ भेद होते हैं। भावार्थ यह है कि जो एकान्त मतों के प्रदर्शक दर्शनकार तथा पुराणकर्ता हुए हैं वे सभी गृहीतमिथ्यादृष्टि हैं।
___ इसी मिथ्यात्व के दूसरी तरह पाँच भेद हैं--1. ऐकान्तिक मिथ्यात्व, 2. सांशयिक मिथ्यात्व, 3. विपरीत मिथ्यात्व, 4. आज्ञानिक मिथ्यात्व और 5. वैनयिक मिथ्यात्व। ये पाँच भेद मूलग्रन्थकर्ता ने किये हैं। ऐकान्तिक मिथ्यात्व का लक्षण
यत्राभिसन्निवेश: स्यादत्यन्तं धर्मिधर्मयोः।
इदमेवेत्थमेवेति तदैकान्तिकमुच्यते॥4॥ अर्थ-द्रव्यगुणादि तत्त्वों में या धर्म और धर्मी में परस्पर सर्वथा भेद मानना, धर्म का या धर्मी का स्वरूप किसी एक प्रकार का मानकर हठ करना, यह इसी प्रकार है, यही है-अर्थात् यह धर्म नित्य ही है अथवा अनित्य ही है, यह धर्म ही है अथवा धर्मी ही है-ऐसा जो सर्वथा किसी के स्वरूप के विषय में एकान्त आग्रह रखना सो ऐकान्तिक मिथ्यात्व है।
उदाहरण-शब्द अमूर्तिक ही है, आकाश का गुण ही है, अथवा स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का ज्ञान जबकि इन्द्रिय से सम्बन्ध होने पर होता है तो चक्षु के विषय का, मन के विषय का ज्ञान भी विषय सम्बन्ध हुए बिना नहीं होना चाहिए। इस सिद्धान्त की पुष्टि जब प्रत्यक्षबाधित होते देखी तो अलौकिक चक्षु की कल्पना कर ली, परन्तु वस्तुस्थिति असम्बद्ध विषयों को जान लेने में भी अनुकूल है ऐसी अनैकान्तिकता स्वीकार नहीं की। यद्यपि चन्द्रमादि अति भिन्न और अन्तरित् वस्तुओं के युगपत् दिख पड़ने से ऊपर की कल्पना बाधित होती है और शब्द बहिरिन्द्रियग्राह्य होने से तथा आघात-प्रतिघात का कारण होने से अमूर्त आकाश का गुण बन नहीं सकता है फिर भी, उन ऐकान्तिक कल्पनाओं को न छोड़ना सो सब ऐकान्तिक मिथ्यात्व है।
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