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210 :: तत्त्वार्थसार
से जो सुख का अनुभव गृहस्थाश्रम में किया था, उसका बार-बार चिन्तवन करना और उस सुख को चाहना सो सुखानुबन्ध नाम अतिचार है। (5) निदान नाम पाँचवाँ अतिचार है। विषयसुखों की अभिलाषा उत्पन्न होने पर जो विषयभोगों में मन का आसक्त हो जाना सो निदान है।
सल्लेखना के विषय में लिख चुके हैं कि यह महाव्रती, अव्रती, अणुव्रती सभी के हो सकती है जो पहले से महाव्रती या अणुव्रती हैं उनको सल्लेखना में निदानादि अतिचार प्रायः सम्भव ही नहीं होता है, क्योंकि निदान यह एक शल्य है और शल्य सहित जीव व्रती नहीं हो सकता है, इसलिए जो निदान शल्य उत्पन्न होगा वह व्रतों को ही मलिन कर देगा। शल्य का त्याग व्रतमात्र के लिए उपयोगी है, इसलिए यदि इसे अतिचार कहना था तो सभी व्रतों का अतिचार बताते, परन्तु ऐसा लिखा नहीं है, इसलिए निदान को एक सल्लेखना का अतिचार बताना यह मतलब जताता है कि सल्लेखना के समय तो अवश्य ही निदान का त्याग कर देना चाहिए, नहीं तो जीवनभर का प्रयत्न निष्फल हो जाएगा।
इसके सिवाय जो अव्रती है वह यदि मरण समय में सल्लेखना धारण करे तो उस की सल्लेखना में अहिंसादि पूर्वकथित सभी व्रत संगृहीत हो जाते हैं। क्योंकि, सभी व्रतों के अभेदरूप से सल्लेखना व्रत का स्वरूप प्रकट होता है, इसलिए जब कि व्रतों की शुद्धि निदान छोड़ने से होती है तो सल्लेखना की शद्धि भी निदान के छोड़ने पर ही होगी। यह बतलाने के लिए भी निदान को सल्लेखना का अतिचार कहा है। शेष रहे जो चार अतिचार वे भी निदान के तुल्य विषयासक्ति के द्योतक हैं, इसलिए दोष हैं।
सम्यक्त्व, पाँच अणुव्रत, सात शील और सल्लेखना के पाँच-पाँच अतिचार लिख चुके। अधिक जो अतिचार हो सकते हों उनका विचार ऊपर से करना चाहिए।
विषयभोगों की इच्छापूर्वक त्याग मर्यादा का नाम व्रत है। यह व्रत लक्षण पाँचों अणुव्रतों में जिस प्रकार सम्भव है उसी प्रकार शील तथा सल्लेखना में सम्भव है, इसलिए शील तथा सल्लेखना भी व्रत
दा चीज नहीं हैं। तो भी शील तथा सल्लेखना को जदा गिनाना किसी प्रयोजन के लिए है. सल्लेखना का प्रयोजन सल्लेखना वर्णन के समय बता चुके हैं। शीलों का प्रयोजन व्रतरक्षा है। व्रतों की रक्षा के उपाय अथवा प्रकार दिग्विरति आदि सात शील हैं. इसलिए 'व्रतों की रक्षा' या 'रक्षा के उपाय' यह शीलों का लक्षण है।
सातवाँ शील अतिथिसंविभाग है। पहले लिख चुके हैं कि दान को ही अतिथिसंविभाग कहते हैं, इसलिए दान का स्वरूप लिखते हैंदान का स्वरूप एवं विशेषता
परात्मनोरनुग्राही धर्मवृद्धिकरत्वतः। स्वस्योत्सर्जनमिच्छन्ति दानं नाम गृहिव्रतम्॥99॥ विधिद्रव्य विशेषाभ्यां दातृपात्र-विशेषतः। ज्ञेयो दानविशेषस्तु पुण्यात्रव-विशेषकृत्॥ 100॥
1. अभिसंधिपूर्वको नियमो व्रतमिति कृत्वा दिग्विरत्यादीन्यपि व्रतानि भवन्ति । किन्तु 'व्रतपरिरक्षणं शील' इत्यस्य विशेषस्य द्योतनार्थं
शीलग्रहणम्।-रा.वा., 7/24, वा. 1 2. उक्तं शीलव्रतविधानेऽतिथिसंविभाग इति तस्य दानस्य लक्षणमनिज्ञातं तदुच्यतामित्यत आह।-रा.वा. 7/38 उत्थानिका
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