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चतुर्थ अधिकार :: 191
अर्थ-दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगपरिसंख्या, अतिथि संविभाग ये सात व्रत और भी ऐसे हैं जो गृहस्थ को धारण करने चाहिए। इस प्रकार गृहस्थ के पाँच व्रत पहले के और सात ये मिलकर बारह होते हैं।
1. दिग्विरति व्रत
दिग्विरति दिशाओं के त्याग को कहते हैं। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऐशान (उत्तर-पूर्व), नैऋत्य (पूर्व-दक्षिण), आग्नेय (दक्षिण-पश्चिम), वायव्य (पश्चिम-उत्तर), ऊर्ध्व, अधो ये दश दिशाएँ हैं। इन दिशाओं की सदा के लिए मर्यादा कर लेना कि मैं अमुक स्थानों में आगे अमुक-अमुक दिशाओं में नहीं जाऊँगा, इसे दिग्विरतिव्रत कहते हैं। जैसे किसी ओर एक पर्वत हो तो उधर की सीमा उस पर्वत से कर लें। इसी प्रकार जहाँ नदी या समुद्र या जंगल हो वहाँ उन-उनसे सीमा बाँध लें। ऐसी प्रसिद्ध व चिरस्थायी चीजों से बाँधी हुई सीमा चिरकाल तक याद रहती है और टिकती है। इस दिग्विरतिव्रत का इतना बड़ा माहात्म्य है कि अणुव्रतधारी भी दिग्विरति के बाहर की अपेक्षा महाव्रती की योग्यता को तथा फल को प्राप्त कर सकता है।
2. देशविरति व्रत
देशविरतिव्रत भी दिग्विरतिव्रत के समान ही होता है। अन्तर इतना है कि दिग्विरति में जो मर्यादा की जाती है वह सदा के लिए, और उस दिग्विरति के भीतर फिर कुछ-कुछ समय के लिए जो और भी कम मर्यादा करना वह देशव्रत है। देशव्रत जितने समय के लिए किया गया हो उतना समय समाप्त होने पर व्रती का गमनागमन फिर भी दिग्विरति की सीमा पर्यन्त हो सकता है। देशव्रत जन्मभर सहस्रों बार बल्कि प्रतिदिन किया जा सकता है।
3. अनर्थदण्डविरति व्रत
जो बिना प्रयोजन पापकर्म करना है उसे अनर्थदण्ड कहते हैं। उस अनर्थदंड से जुदा होना सो अनर्थदंडविरति नाम का व्रत है। अनर्थदंड के पाँच प्रकार किये गये हैं-1. अपध्यान, 2. पापोपदेश', 3. प्रमादचरित', 4. हिंसादान' और 5. दुःश्रुति । ये पाँचों ही क्रिया पाप बढ़ाने वाली हैं।
1. दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि। इति संकल्पो दिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्यै॥68 ॥ रत्नक. श्रा.। 2. मकराकरसरिदटवीगिरिजनपदयोजनानि मर्यादाः। प्राहुर्दिशां दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि ॥69॥ रत्नक, श्रा. । 3. अवधेर्बहिरणुपापप्रतिविरते दिग्व्रतानि धारयतां। पंच महाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते 170 ॥ रत्नक. श्रा.।
प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्दतराश्चरणमोहपरिणामाः । सत्त्वेन दुरवधारा महाव्रताय प्रकल्प्यन्ते ।।71॥ रत्नक, श्रा. । 4. देशावकाशिक: स्यात्कालपरिच्छेदनेन देशस्य। प्रत्यहमणुव्रतानां प्रतिसंहारो विशालस्य ।।92 ॥ रत्नक. श्रा. ।
गृहहारिग्रामाणां क्षेत्रनदीदावयोजनानां च। देशावकाशिकस्य स्मरन्ति सीम्नां तपोवृद्धाः ॥93॥ रत्नक. श्रा.। 5. असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदण्ड:-सर्वा.सि., वृ. 703 6. वधबंधच्छेदादेद्वेषाद्रागाच्च परकलत्रादेः। आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः ।।78 ॥ रत्नक. श्रा.। 7. तिर्यक्क्लेशवणिज्याहिंसारम्भप्रलम्भनादीनाम्। प्रसवः कथाप्रसंग स्मर्तव्यः पाप उपदेशः 1176 ।। रत्नक. श्रा. ।
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