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चतुर्थ अधिकार :: 197
सम्भव हैं वे दोष अब यथाक्रम से कहते हैं। एक-एक के मुख्य दोष पाँच-पाँच माने गये हैं। बाकी के दोष ऊपर से समझना चाहिए। इन दोषों को अतिचार' कहते हैं।
सम्यक्त्व के पाँच दोष
शंकनं कारणं चैव तथा च विचिकित्सनम्।
प्रशंसा परदृष्टीनां संस्तवश्चेति पञ्च ते॥84॥ अर्थ-(1) अर्हत् के उपदेश में शंका करना कि यह ठीक है या नहीं, अर्हन्त ने सर्वतत्त्व प्रत्यक्ष देखकर कहे हैं अथवा युक्ति द्वारा कल्पित किये हैं-ऐसे विचारों को शंका दोष कहते हैं। इस लोक का, परलोक का, व्याधियों के विषय का, मरण का, असंयम का, अनाथपने का, आकस्मिक घटनाओं का भय होना भी शंका दोष में गर्भित होता है, ये सब प्रकार के शंका दोष होते हैं। इन्हीं को सात भय कहते हैं। यह सर्वप्रकार का शंका-दोष सम्यक्त्व में मलिनता उत्पन्न करता है। (2) इसलोकपरलोक के भोगों की लालसा रखना सो कांक्षा या आकांक्षा दोष है। मिथ्यावृष्टियों में उत्पन्न होने की या मिथ्यादृष्टियों के समागम-सहवास की इच्छा रखना भी आकांक्षा दोष है। (3) शरीरादि मलिन वस्तुओं को देखकर उनसे ग्लानि करना, उस शरीर के सम्बन्ध से पवित्र साधुओं को भी ग्लानि की दृष्टि से देखना, अर्हन्त के मोक्षमार्ग में तपस्यादि घोर कष्ट देखकर उन कष्टों को अनुचित समझकर निर्ग्रन्थ तपस्वियों को ग्लानि की दृष्टि से देखना-इत्यादि अनुचित ग्लानि को विचिकित्सा दोष कहते हैं। (4) मिथ्यादृष्टियों को देखकर मन में उनके सिद्धान्त, मत तथा विचारों को अच्छा समझना, उन गुणों पर मोहित होना यह अन्यदृष्टि-प्रशंसा नाम का दोष है। (5) मिथ्यादृष्टियों के विचारों की, उनके मत क्रियाओं की, मुख से प्रशंसा करना यह अन्यदृष्टिसंस्तवन नाम दोष है। इन दोषों को सम्यक्त्व के दोष इसलिए कहा है कि सम्यक्त्व गुण को इनसे दूषण लगता है। ये सम्यक्त्व के पाँच दोष हैं।
अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचार
बन्धो वधस्तथा छेदो गुरुभाराधिरोपणम्।
अन्नपाननिषेधश्च प्रत्येया इति पञ्च ते॥85॥ अर्थ-1. बाँध लेना, 2. चाबुक वगैरह से मारना या वध कर देना, 3. कान-नाक इत्यादि काटना
1. "देशस्य भंगादनुपालनाच्च पूज्या अतिचारमुदाहरंति" सा.धर्माः । व्रत के कुछ अंश का भंग हो जाना या न पालना इसका नाम
अतिचार है। 2. सम्यक्त्व के जहाँ गुण कहे गये हैं वे आठ हैं : (1) नि:शंका, (2) नि:कांक्षा, (3)निर्विचिकित्सा, (4) अमूढदृष्टि, (5) उपगूहन, (6) स्थितीकरण, (7) वात्सल्य, (8) प्रभावना। यदि इनसे उलटी तरफ देखा जाए तो दोष भी आठ हो सकते हैं, परन्तु यहाँ जो सम्यक्त्व के दोष लिखे वे पाँच ही क्यों लिखे? उत्तर-पहले तीन दोष तो प्रथम तीन गुणों से ठीक उलटे हैं ही। रहे अन्त के दो दोष सो उनमें शेष पाँचों गुण के प्रतिपक्षी पाँच दोष गर्भित किये हैं। वह कैसे? अर्थ समान होने से पाँचवें चौथे दोषों का व्यापक अर्थ मान लेने से अन्तर्भाव हो सकता है। अथवा उपलक्षण से शेष दोषों का ले लेना तो सहज ही है। आठों न गिनाने का प्रयोजन यह है कि जहाँ सभी विषयों के अतिचार पाँच-पाँच ही कहे जाएँगे वहाँ इसी के लिए संख्या भेद क्यों करें?
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