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188 :: तत्त्वार्थसार
4. अब्रह्म का लक्षण
मैथुनं मदनोद्रेकादब्रह्म परिकीर्तितम्। अर्थ-काम वासना बढ़ने पर मैथुन करने लगना वह अब्रह्म पाप कहलाता है। यहाँ भी प्रमाद का सम्बन्ध समझना चाहिए, परन्तु कहा इसलिए नहीं है कि मदनोद्रेक उस प्रमाद के बदले में दिखा चुके हैं। मदन का उद्रेक भी एक प्रमाद ही है और वह सबसे बढ़कर' प्रमाद है।
ब्रह्म नाम आत्मा का है, और आत्मा का स्वरूप जिस क्रिया के करने में भूल जाता हो उसी क्रिया को अब्रह्म कहना चाहिए, परन्तु मैथुन-सेवन में प्रवर्तने वाला जीव जैसा कुछ आतुर होता है और आपे को भूलता है वैसा दूसरे कामों में नहीं भूलता। इसीलिए काम-सेवन में अब्रह्म शब्द रूढ़ हो रहा है। काम की दशा विचित्र हो जाती है। काम अधिक व्यापे तो मरण तक हो जाता है। कामी पुरुष नीच ऊँच का विचार नहीं करता, इसलिए कामसेवन से असली ब्रह्म नष्ट होता है और इसीलिए इस पाप को अब्रह्म' कहते हैं। जहाँ अठारह हजार शील के भेद किये गये हैं, वहाँ किसी भी विषय वासना का सम्बन्ध नहीं रहता तभी पूर्ण ब्रह्मचर्य होता है।
5. परिग्रह का लक्षण
ममेदमिति संकल्परूपा मूर्छा परिग्रहः ॥77॥ अर्थ-किसी भी पदार्थ में यह संकल्प होना कि यह मेरा है, इसी को परिग्रह कहते हैं। यह एक प्रकार की मूर्छा है। शब्द शास्त्र में मूर्छा का अर्थ मोह का समुच्छ्राय है। इस अर्थ में तथा ममत्व अर्थ करने में अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि, ममत्व भी एक असावधानी है। आत्मा का पर-वस्तुओं में ममत्व करने से वह आत्मा को विसर जाता है, इसलिए आत्मा की यह मूर्छा दशा ही समझनी चाहिए। दूसरे, मोह यह सामान्य अर्थ लेने से ममत्व रूप विशेष मोह का भी अर्थ लिया जा सकता है। हाँ, लोग मूर्छा शब्द का अर्थ मूर्च्छित होकर पड़ना ऐसा करते हैं, वह यहाँ नहीं है। अध्यात्मदृष्टि रखनेवाले लोकप्रचलित अर्थ के अनसार ही बोलने के लिए बाधित नहीं हैं। वे इसको भी मर्छा समझते हैं कि लोग बाह्याभ्यन्तर उपाधियों के भीतर फँसकर गूंगे बने रहते हैं, इसलिए उपाधियों के उपार्जन व रक्षण करने में लगने को ही मूर्छा कहना ठीक है और इसी का नाम परिग्रह है। 1. नूनं हिं ते कविवरा विपरीतबोधा, ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम् । यासां विलोलतरतारकदृष्टिपातैः शक्रादयोऽपि विजितास्त्वबलाः
कथं ता:?॥ 2. जटा नेयं वेणी कृतक च कलापो न गरलं गले कस्तूरीयं शिरसि शशिलेखा न धवलिमा। इयं भूतिर्नाङ्गे प्रियविरहजन्मा धवलिमा, ___ पुरारातिभ्रान्त्या कुसुमशर मां किं प्रहरसि! 3. अभिलाषश्चिन्तास्मृतिगुणकथनोद्वेगसंप्रलापश्च । उन्मादोऽथ व्याधिर्जडता मृतिरिति दशात्र कामदशाः । (साहित्यदर्पण, तृतीय परि.)। 4. अहिंसादयो गुणा यस्मिन्परिपाल्यमाने वृहन्ति वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्म। न ब्रह्म-अब्रह्म। किं तत् ? मैथुनम्। तत्र हिंसादयो दोषा:
पुष्यन्ति । यस्मान्मैथुनसेवनप्रवणः स्थास्नूंश्चरिष्णूश्च प्राणिनो हिनस्ति, मृषावादमचष्टे अदत्तमादत्ते अचेतनमितरं च परिग्रहं गृहणाति । (सर्वा.सि., वृ. 693) रक्ष्यमाने हि वृंहन्ति यत्र हिंसादयो गुणाः । उदाहरन्ति तदब्रह्म ब्रह्मविद्याविशारदाः ॥ यशस्ति. आ. 7 कल्प 31 5. मूर्छा मोहसमुच्छ्रायोः इति जैनेन्द्र। 2 मूर्च्छरियं मोहसामान्ये वर्तते। सामान्यचोदनाश्च विशेषेष्ववतिष्ठन्ते इति विशेषे व्यवस्थितः
परिगृह्यते।-सर्वा.सि., वृ. 695
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