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184 :: तत्त्वार्थसार
इस प्रकार ये पाप साक्षात् दुःखदायी हैं और परलोक में जो दुःख मिलेगा उसके भी कारण हैं। यदि जीव ऐसे पाप न करे तो क्यों दुर्गति के दुःख भोगे ? दुर्गति का दुःख असातावेदनीय के उदय से होता है। उस असातावेदनीय कर्म के बन्ध के कारण पाँचों पाप हैं, इसलिए पापों को भी दुःख कह सकते हैं अथवा दुःख के कारणों के कारण इन्हें कहना चाहिए। जैसे धन को प्राण कहना उपचार है, उसी प्रकार पापों को दुःख कहना उपचार है और दुःख को कारण कहना भी उपचार है क्योंकि, दुःख का असली कारण तो असातावेदनीय कर्म है और पाप उस कर्म के भी कारण हैं। जब मनुष्य दूसरों को हिंसादि दुःख देना चाहे तब अपने ऊपर से विचार करे कि मुझे जब इन पापों से दुःख होता है तो दूसरों को भी दुःख क्यों न होता होगा? ऐसा विचार करने से तत्त्वपरायण मनुष्य पापों से विरक्त हो सकते हैं । दुःख की जड़ होने से ये ही दुःख हैं ऐसा भी पापों को मानना उचित है।
व्रती की कैसी भावना होनी चाहिए ? -
सत्त्वेषु भावयेन्मैत्रीं मुदितां गुणशालिषु । क्लिश्यमानेषु करुणामुपेक्षां वामदृष्टिषु ॥ 72 ॥
अर्थ - प्राणी मात्र में मैत्री मानना चाहिए। गुणी मनुष्यों में प्रमोद या हर्ष रखना चाहिए। दुःखी रोगी जो मनुष्य हों उनमें करुणा रखनी चाहिए। जो विरुद्ध तथा क्रूर हों उनका भी बुरा न विचारना चाहिए और उपेक्षा रखना चाहिए अर्थात् उनसे आप दूर रहें। मैत्री का अर्थ है दूसरों को दुःख उत्पन्न न हो ऐसी अभिलाषा रखना । मुख की प्रसन्नता से तथा और भी प्रकार से भीतर की प्रेम - भक्ति प्रकट कर दिखाना सो प्रमोद है। प्रीति भी नहीं करना, द्वेष भी नहीं करना, इसका नाम उपेक्षा' है।
व्रतरक्षार्थ और भी भावना हैं
संवेगसिद्धये लोकस्वभावं सुष्ठु भावयेत् ।
वैराग्यार्थं शरीरस्य स्वभावं चापि चिन्तयेत् ॥ 73 ॥
अर्थ- संसार एवं शरीर का स्वभाव विचारने से संवेग व वैराग्य की सिद्धि होती है । संसार से भय होने को संवेग कहते कहते हैं। राग के वर्द्धक कारण दूर हो जाने से जो विषयों से उदासी हो जाती है उसे वैराग्य' कहते हैं। पापों से विरक्त होना व्रत है, पाप-पुण्य से विरक्त होना वैराग्य है ।
जग अनादि । मूलतत्त्व इसके सभी शाश्वत हैं, परन्तु परस्पर संयोगवश जीव पुद्गलों में नाना विकार उत्पन्न होते हैं। इसी का नाम संसार है । संसारी अशुद्ध जीव पुद्गल के मेल से जिन दुःखमई पर्यायों को धारण करते हैं, उनमें जन्मते मरते हैं वे पर्याय चार हैं: नरक - तिर्यंच - मनुष्य- देव । इन्हीं चारों को गति कहते हैं । इनमें जीवों को सतत क्लेश भोगने पड़ते हैं । यह जग का स्वभाव हुआ ।
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1. परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री । - रा. वा. 7/11, वा. 1
2. वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भक्तिरागः प्रमोदः । - रा. वा. 7/11, वा. 2
3. रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थ्यं ( उपेक्षा) । - रा. वा. 7 / 11, वा. 4
4. संसाराद्भीरुता संवेगाः । - रा. वा. 7/12, वा. 3
5. रागकारणाभावाद्विषयेभ्यो विरंजनं विरागः । - रा. वा. 7/12, वा. 4
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