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150 :: तत्त्वार्थसार
व अवगाहन ये तीनों स्वभाव निराले गुण न होकर केवल धर्मादि उपाधियों के सम्बन्ध से प्रदेशत्व गुण के विकार कहे जा सकते हैं। यद्यपि विकार क्रमभावी होते हैं और गति तथा अवगाहना ये दोनों एक साथ रहते हैं तो भी कुछ दोष नहीं है। ऐसे भी बहुत से गुण देखने में आते हैं कि जिनके अनेकों विकार एक साथ भी होते रहते हैं। उदाहरणार्थ, स्पर्श गुण के स्निग्ध या रूक्षत्व, तथा गुरुत्व या लघुत्व, एवं मृदु या कठिन, तथा शीत या उष्ण-ये चार-चार विकार ऐसे हैं कि एक साथ बने रहते हैं। इसी प्रकार गत्यादि पर्यायों को एक प्रदेशत्व गुण के पर्याय मानना अनुचित नहीं है।
अथवा प्रत्येक पदार्थ में अनन्तों ऐसे गुण भी रहते हैं कि जो गिनाये नहीं गये हैं और न गिनाये ही जा सकते हैं, परन्तु उनके द्वारा पृथक्-पृथक् कार्योत्पत्ति दिख पड़ने से वे अनुमान साध्य होते हैं। उन्हीं में से गत्यादि गुण भी जुदे मान लिये जाएँ तो भी अनुचित नहीं है, परन्तु यह अवश्य मानना चाहिए कि ये गुणस्वभाव अनुजीवी व सत्तात्मक हैं। इस प्रकार धर्माधर्माकाश काल-द्रव्यों की जुदी सत्ता सिद्ध हुई।
परमाणु-स्कन्ध-विचार : परमाणुओं से स्कन्ध व स्कन्धों से परमाणु होते अवश्य हैं, परन्तु शाश्वतिकपना तो भी कायम रहता है। जो परमाणु परस्पर मिलते हुए स्कन्ध की अवस्था धारण करते हैं वे अपनी परमाणुता तथा सूक्ष्मता को छोड़ते नहीं हैं। तो भी उनके मिलने पर एक नवीन अवस्था हो जाती है। यह पुद्गल द्रव्य की एक वैभाविक शक्ति का कार्य है। परमाणुओं के जितने गुण होते हैं उनका अनुभव स्कन्धावस्था प्राप्त होने पर होता है और उन एक-एक गुणों के व्यक्त होने के लिए अलग-अलग स्कन्ध माने जाते हैं। एक स्कन्ध में जो गुण व्यक्त होता है वह दूसरे में नहीं होता, परन्तु परमाणु की शक्ति या गुण सर्वत्र एक से माने जाते हैं। इससे ऐसा जान पड़ता है कि सर्व स्कन्धों का बन्धन मात्र परस्पर विचित्र है और उनकी सन्तति भी अनादि से रह रही है। गेहूँ से गेहूँ की उत्पत्ति होना, मनुष्य प्राणी से मनुष्य की उत्पत्ति होना-इत्यादि उदाहरणों में स्कन्धों की अनादिका
दिकालीन सन्तति जान भी पड़ती है। यद्यपि जो परमाणु मिलते-मिलते गेहूँ आदि व्यक्त स्कन्धाकार को कभी धारण नहीं कर सकते हैं, इसीलिए यों कहना चाहिए कि जितने स्कन्ध केवल परमाणुओं से बनते हैं वे इन्द्रिय तथा शरीर के उपभोग योग्य नहीं हो सकते हैं। उपभोग योग्य वे ही हो सकते हैं जो एक समय सम्बन्धी भेदसंघात-क्रिया द्वारा आकर किसी पूर्वबद्ध स्कन्ध में मिल जाते हैं। इसीलिए भेद व संघात के सिवाय एक-समयवर्ती भेद संघात को तृतीय कारण' माना गया है। ___ इस तृतीय कारण का उपयोग ग्रन्थकारों ने स्कन्धों में चाक्षुषत्व होना बताया है परन्तु चाक्षुषत्व का अर्थ उपभोग योग्यता ही हो सकता है। चक्षु के विषय को चाक्षुष कहते हैं। इस शब्द को उपलक्षण मानकर स्पर्शन आदि सभी उपभोगयोग्य विषयों का अर्थसंग्रह कर लेना चाहिए। यदि ऐसा न माना जाए तो बीजादि की सन्तति को न मानकर भी केवल परमाणुओं से सर्व स्कन्धों का होना क्यों नहीं माना जाता है? यदि ऐसा मानें भी तो कार्यकारण-व्यवहार के विरुद्ध है।
1. भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषः ॥ तत्त्वा.सू., 5/28
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