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तृतीय अधिकार :: 153 में एक शक्ति व्यक्त रहती है, वह दूसरे में नहीं रहती । ऐसे पदार्थों में यही मानना पड़ता है कि परमाणु संख्या हीनाधिक है, अतएव बन्धन की विचित्रता से दोनों की अशुद्धता समान नहीं है। ऐसे अन्तर अनेक प्रकार के मिल सकते हैं और एक-एक स्कन्ध में असंख्यातों अशुद्धताएँ व्यक्त भी रहती हैं, इसलिए यह मानना पड़ता है कि स्थूल स्कन्धों में अनन्तों परमाणु होते हैं। स्कन्ध में आकृति के सूक्ष्म विभागों की संख्या की अपेक्षा परमाणुओं की संख्या अधिक माननी पड़ती है। अतएव एक परमाणु की जगह में दूसरे परमाणुओं का आ जाना भी सिद्ध होता है । जहाँ तक स्थूलता प्राप्त नहीं होती वहाँ तक के सूक्ष्म स्कन्धों में भी यह प्रवेशशक्ति माननी पड़ती है।
देखो, पानी-शक्कर इत्यादि कुछ स्थूल चीजें भी ऐसी देखने में आती हैं कि जो एक-दूसरे में मिलकर प्रविष्ट हो जाती हैं। तो फिर सूक्ष्म पदार्थों में प्रवेशशक्ति मानना क्या असम्भव है ? उन चीजों के बीच-बीच में छिद्र या रिक्तता की कल्पना करना निर्हेतुक है । यह परमाणु स्कन्ध का विचार हुआ । इस प्रकार सब द्रव्य छह हैं । इन छह भेदों से न तो कम ही हो सकते हैं और न अधिक । हाँ, कालद्रव्य की संख्या असंख्यात है और वह युक्ति से सिद्ध की गयी है । जीव व पुद्गल के भेद अनन्त - अनन्त हैं और वे अनुभवगोचर हैं। जीव विनाशीक सिद्ध न हो इत्यादि प्रयोजनवश जो जीव को एक अखंड या व्यापक मानते हैं वह मानना निर्हेतुक है | शरीरावच्छिन्न जीव की तो लक्षण द्वारा सिद्धि होती है, परन्तु अन्यत्र उसकी सत्ता मानने में कोई प्रमाण नहीं है। जीव का लक्षण चैतन्य है; वह शरीर के बाहर नहीं मिलता। नित्यता ठहराने के लिए भी जीव को व्यापक मानने की आवश्यकता नहीं है । कोई भी पदार्थ केवल नित्य या केवल अनित्य नहीं हो सकता, यह बात हम पहले बता चुके हैं। पर्याय बदलते हुए भी जीव की सामान्यदृष्ट्या जो नित्यता है वह नष्ट नहीं होती और वैसी नित्यता मध्यम या शरीर प्रमाण आकार मानने पर भी कायम रहती है । यह नियम नहीं हो सकता कि मध्यम परिमाण वाले पदार्थ अनित्य ही होते हैं अथवा अवयवों की अपेक्षा से देखा जाए तो जीव के प्रदेश मध्यम परिमाण के योग्य भी नहीं हैं। हाँ, लोक के प्रदेशों के तुल्य उसके प्रदेश होकर भी वह सुख - दुःख भोगने के लिए सुखदुःखाधिष्ठान रूप शरीर में समाकर रहता है। शुद्ध होने पर जिस शरीर में से छूटता है उस शरीर की आकृति को सदा के लिए धारण करके रहता है। क्योंकि, प्रदेशों की संख्या व्यापक बनने योग्य रहते हुए भी विजातीय संयोग न रहने से संकोच विस्तार - क्रिया का अभाव हो जाता है, इसलिए जीव द्रव्य को व्यापक बनने योग्य रहते हुए भी विजातीय संयोग न रहने से संकोच विस्तार - क्रिया का अभाव हो जाता है, इसलिए जीव द्रव्य को व्यापक मानने की आवश्यकता नहीं है । शेष रहे धर्माधर्माकाश, सो ये तीनों अखंड एक-एक ही हैं। हाँ, गुण-पर्याय तो तब भी सभी में होते रहते हैं ।
इस प्रकार सब द्रव्य छह हैं और गुण अनन्त हैं । द्रव्यों की संख्या जो छह से अधिक मानते हैं वह ठीक नहीं है एवं गुणों की जो संख्या नियत कर देना वह भी ठीक नहीं है। जो लोग द्रव्यों की संख्या छह नहीं मानते वे एक पुद्गल को पाँच विभाग रूप मानते हैं और धर्माधर्म को नहीं मानते, परन्तु आकाश के आकाश और दिशा ऐसे दो भेद मानते हैं । इस प्रकार उनके मत में जीव और काल द्रव्य को मिलाने से सब द्रव्य नौ हो जाते हैं ।
आघातता अथवा मूर्तिमत्ता और रूप, रस, गन्ध, स्पर्श—ये चिह्न जिनमें पाये जाते हैं, उन्हें हम पुद्गल
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