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चतुर्थ अधिकार :: 157
है। पहला द्रव्यास्रव है और दूसरा भावास्रव । बहकर आनेवाला पदार्थ द्रव्य होगा, इसलिए द्रव्यास्रव नाम सार्थक है। कर्मबन्धन के प्रकरण में कर्म का संग्रह करनेवाला जो आत्मीय परिणाम होता है वह गुणपर्यायात्मक होता है, इसलिए उसे भावास्रव' कहते हैं। ये दो भेद ग्रन्थकारों ने वस्तुस्थिति जताने के लिए बताये अवश्य है, परन्तु इस प्रकरण में केवल भावास्रव दिखाने की ग्रन्थकार की इच्छा है।
बन्धनयोग्य द्रव्यकर्म जिस कारण से बन्धन की अवस्था में आकर प्राप्त हों उसे आस्रव कहते हैं । यह आस्रव का लक्षण तात्पर्य सिद्ध है। यह लक्षण द्रव्यास्रव व भावास्रव दोनों में ही जुड़ता है। कितने ही लोग तो क्रियायुक्त पदार्थ को कार्य का मुख्य कारण कहते हैं और कितने ही कार्योत्पत्ति से पूर्वक्षणवर्ती क्रिया' को ही मुख्य कारण या करण' कहते हैं। प्रथम अर्थ लेने पर तो बन्ध का कारण भावास्रव हो सकता है और दूसरे अर्थ के अनुसार द्रव्यास्रव ।
सरोवर के भीतर पानी आने की जो मोरी होती है उसमें होकर पानी भीतर बह आता है। संस्कृत भाषा में 'आस्रव' का अर्थ 'बह आने का द्वार' ऐसा होता है। योगरूप नली भी इसी प्रकार आत्मा के भीतर कर्मयोग्य परमाणु पिण्ड को बहाकर लाती है, इसलिए योग - नली को जिनेन्द्र ने आस्रव कहा है । क्योंकि, पानी बह आने के लिए मोरी जिस प्रकार कारण है उसी प्रकार योग भी कार्मण स्कन्धों को कर्मपर्याय बनाने के लिए कारण है। प्रत्येक आत्मा के साथ या भीतर कर्मपर्याय होने योग्य बहुत से पुद्गल -पिंड संचित रहते हैं । उन्हीं में से कुछेक योगवशात् कर्मरूप होते रहते हैं, इसलिए बहकर आने का दृष्टान्त कर्म के आने में तुलना नहीं रखता। ऐसी तुलना तभी हो सकती है जब कि बाहर से कर्म भीतर आते हों। यदि ऐसा है तो योग को आस्रव क्यों कहा जाता है ? उत्तर-द्वार तथा आस्रव शब्द का जो अर्थ लोग मानते हैं वह कारण समझकर मानते हैं और कारणार्थ योगों में भी दिख पड़ता है, इसलिए योगों को कर्मद्वार तथा आस्रव कहने की रूढ़ि चल रही है, अर्थात् कारण मात्र की अपेक्षा से यहाँ तुलना है और आस्रव शब्द का प्रयोग उपचार से किया गया है ।
कर्म के दो प्रकार
जन्तवः सकषाया ये कर्म ते साम्परायिकम् । अर्जयन्त्युपशान्ताद्या ईर्यापथमथापरे ॥ 5 ॥ साम्परायिकमेतत्स्यादार्द्रचर्मस्थरेणुवत् । सकषायस्य यत्कर्म योगानीतं तु मूर्च्छति ॥ 6 ॥ ईर्यापथं तु तच्छुष्क-कुड्य-प्रक्षिप्त-लोष्टवत्।
अकषायस्य यत्कर्म योगानीतं न मूर्च्छति ॥ 7 ॥
अर्थ-जिन जीवों में क्रोधादि कषाय होते हैं वे साम्परायिक कर्म का बन्ध करते हैं। जिनके कषाय उपशान्त या क्षीण हो गये हों वे ईर्यापथ कर्म का ही संग्रह करते हैं । साम्पराय का अर्थ संसार है । संसार
1. आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणी स विष्णेयो। भावासवो जिणुत्तो कम्मासवणं परो होदि । - द्र. सं., गा. 29
2. व्यापारवदसाधारणं कारणं करणम् ।
3. यद्व्यापारादनन्तरं कार्यमुत्पद्यते स व्यापारः करणम् ।
4. कार्याव्यवहितपूर्वक्षयावृत्तित्वे सति असाधारणकारणं करणम् । साधकतमः करणमिति तु जैनेन्द्रे ।
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