________________
चतुर्थ अधिकार :: 165 किया जाना, (2) योगों का निसर्ग या लगाना, (3) वस्तुओं का कहीं पर रखना अर्थात् निक्षेप, (4) शरीर की तथा बाकी चीजों की नयी तैयारी करना। अजीव पुद्गल के उपयोग के ये चार प्रकार हैं।
1. प्रथम संयोग। इसके दो प्रकार हैं-(1) भक्तपान संयोग, (2) उपकरण संयोग । खाने-पीने की वस्तुओं का इकट्ठा करना भक्तपान संयोग रूप अधिकरण है। चूल्हा, चक्की आदि उपभोग साधनों का इकट्ठा करना उपकरण संयोग नामक अधिकरण कहलाता है।
2. दूसरा निसर्ग नाम का अजीवाधिकरण । इसके तीन भेद हैं : (1) शरीरनिसर्ग, (2) वचननिसर्ग और (3) चित्तनिसर्ग। शरीर को कहीं पर टेकना या रखना शरीरनिसर्ग है। वचन निकलना वचननिसर्ग है। किसी चीज में मन का आसक्त होना चित्तनिसर्ग है। ___3. तीसरा निक्षेपाधिकरण है। इसके (1) अप्रत्यवेक्षितनिक्षेप, (2) अप्रमार्जितनिक्षेप, (3) सहसानिक्षेप
और (4) अनाभोगनिक्षेप ये चार भेद हैं। बिना देखी भाली जमीन पर कुछ रख देना अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण है। बिना झाड़ी हुई जमीन पर कुछ रख देना अप्रमार्जित निक्षेपाधिकरण कहलाता है। किसी चीज को एकदम जमीन पर कहीं डाल देना सहसानिक्षेपाधिकरण है। जहाँ पर कभी कोई जाता नहीं, बैठता-उठता नहीं उस जमीन पर कुछ रखना अनाभोगनिक्षेपाधिकरण है।
4. चौथा निर्वर्तनाधिकरण। इसके दो भेद हैं—(1) मूलगुण निर्वर्तनाधिकरण और (2) उत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरण। पाँच शरीर तथा वचन, मन, श्वासोच्छ्वास की रचना होना मूलगुण निर्वर्तनाधिकरण है। घर बाँधना, माटी-ईंट-पत्थरों के दूसरे कुछ काम करना, वास्तुशिल्प का ध्यान न रखना, लकड़ी, कागज के घोड़े आदि बनाना, इत्यादि उत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरण कहलाते हैं। ये सर्व अजीवाधिकरण के ग्यारह उत्तर भेद होते हैं। कर्ममात्र के लिए ये सर्व आस्रव के कारण कहे, परन्तु कर्मों के भेद आठ हैं, इसलिए अब प्रत्येक कर्म के आस्रवकारण जुदे-जुदे भी बताते हैं1. ज्ञानावरण कर्म के आस्रव-हेतु
मात्सर्यमन्तरायश्च प्रदोषो निह्नवस्तथा। आसादनोपघातौ च ज्ञानस्योत्सूत्रचोदितौ ॥ 13॥ अनादरार्थश्रवणमालस्यं शास्त्रविक्रयः। बहुश्रुताभिमानेन तथा मिथ्योपदेशनम्॥14॥ अकालाधीतिराचार्योपाध्याय-प्रत्यनीकता। श्रद्धाभावोऽप्यनभ्यासः तथा तीर्थोपरोधनम्॥15॥ बहुश्रुतावमानश्च ज्ञानाधीतेश्च शाठ्यता।
इत्येते ज्ञानरोधस्य भवन्त्यास्त्रवहेतवः ॥16॥ अर्थ-ज्ञान को घातनेवाले ज्ञानावरण नामक कर्म के आस्रव कारण निम्नलिखित हैं1. जो ज्ञान अपने में हो और दूसरा उसे समझना चाहे, परन्तु न कहना-न बताना यह मात्सर्य'
1. यावद्यथावद्देयज्ञानाप्रदानं मात्सर्यम्।-रा.वा. 6/10, वा. 3
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org