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176 :: तत्त्वार्थसार
6. 'शीलव्रतों में अतिचार रहित प्रवर्तना", यह छठा कारण है। अहिंसादि व्रत आगे कहेंगे। शील शब्द के अर्थ तीन हो सकते हैं; एक तो सत्स्वभाव, दूसरा स्वदारसन्तोष, तीसरा दिग्व्रत आदि सात व्रत, जो अहिंसादिव्रत रक्षार्थ आगे कहे जाने वाले हैं वे। इन तीनों अर्थों में से पहला और तीसरा यहाँ लेना ठीक है। सत्स्वभाव का अर्थ क्रोधादि कषाय के वश न होना है। यह सत्स्वभाव भी अहिंसादि व्रतरक्षार्थ होता है। अतिक्रोधी या लोभी, मानी, मायाचारी के अहिंसादिव्रत कभी निर्मल नहीं रह सकते हैं, इसीलिए व्रतरक्षार्थ क्रोधादिकषाय छोड़ने चाहिए। दिग्वतादिक भी व्रतरक्षार्थ ही होते हैं और वे भी कषाय अतिमन्द कर लेने पर हो सकते हैं। इसीलिए दिग्व्रतों को भी हम शील कहते हैं। इस प्रकार पहला व तीसरा अर्थ शीलशब्द का लेना उचित है, परन्तु दूसरा अर्थ जो स्वदार सन्तोष वह नहीं लेना चाहिए; क्योंकि वह अर्थ व्रतों में आ जाता है। शील या स्वदार सन्तोष भी गृहस्थों का एक मुख्य व्रत माना गया है।
7. सातवाँ कारण 'संवेग स्वभाव' है। संवेग सदा रहना चाहिए। संसार दुःखों से उद्विग्न रहने का नाम संवेग है।
8. आठवाँ कारण—'सदा ज्ञानोपयोग' में रहना। ज्ञान के प्रत्येक कार्य को विचारकर उसमें प्रवृत्ति करना यह ज्ञानोपयोग का अर्थ है। ज्ञानाराधना का साक्षात् व परम्पराफल विचारना कि अज्ञान निवृत्ति व हिताहित प्राप्ति-परिहार ज्ञान से ही होता है यह भी ज्ञानोपयोग का ही अर्थ है, इसलिए ज्ञान को अपना हितकारी समझना चाहिए। सदा ज्ञानोपयोग में रहने को अभीक्ष्णज्ञानोपयोग कहते हैं।
9. नौवाँ कारण है 'साधु समाधि' रखना। मुनियों के तप तथा आत्मसिद्धि में विघ्न आए हुए देख उन्हें दूर करना साधुसमाधि है, अर्थात् तपस्वियों को संधारण में रखने का प्रयत्न करना (सावधान करना) साधु समाधि है।
10. दसवाँ कारण 'वैयावृत्त्य' करना है। वैयावृत्त्य का अर्थ सेवा, शुश्रूषा करना है। व्यावृत्ति का अर्थ दूर करना होता है। साधुओं का दुःख-खेद दूर करना यह यहाँ तात्पर्यार्थ है। इसके प्रकार इस तरह हैं— तपस्वियों को दुःख के कारण उपस्थित हुए हों तो उन्हें दूर करना, उनकी सेवा करना, पैर दबाना, उनके स्थान को साफ स्वच्छ रखना इत्यादि। समाधि जो नौवाँ कारण लिखा है उसका मतलब साधुओं का चित्त सन्तुष्ट रखना है और इस वैयावृत्त्य का मतलब उनकी सेवा करना है। तप तथा मोक्षमार्ग के ध्वंसक कारण उपस्थित होने पर समाधि करने की आवश्यकता पड़ती है और वैयावृत्त्य सदा छोटीछोटी बातों में भी सेवा करने से सिद्ध होता है। वैयावृत्त्य का तात्पर्य इतना ही है कि तपस्वियों के योग्य साधन इकट्ठा रखना जो कि सदा उपयोगी पड़ते हैं, इसीलिए उनको जो दान दिया जाता है वह वैयावृत्त्य कहलाता है, न कि साधुसमाधि।
1. चारित्रविकल्पेषु शीलव्रतेषु निरवद्या वृत्तिः शीलव्रतेष्वनतीचारः। अहिंसादिषु व्रतेषु तत्परिपालनार्थेषु च क्रोधवर्जनादिषु शीलेषु
निरवद्या कायवाङ्मनको वृत्तिः शीलव्रतेष्वनतीचारः।-रा.वा. 6/24, वा. 3 2. संसारदुःखान्नित्यभीरुतासंवेगः-रा.वा. 6/24, वा. 5 3. यथा भाण्डारे दहने समुत्थिते तत्प्रशमनमनुष्ठीयते बहूपकारत्वात्। तथानेकव्रतशीलसमृद्धस्य मुनिगणस्य तपसः कतश्चित्प्रत्यूहे
समुपस्थिते तत्संधारणं समाधिः।--रा.वा. 6/24, वा. 8
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