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चतुर्थ अधिकार :: 163 अर्थ- यहाँ कषायों के आधार को अधिकरण कहा है। वे अधिकरण दो प्रकार के हैं, जीव व अजीव। कषाय कहाँ उत्पन्न होता है इस प्रश्न का उत्तर देखने लगें तो जीव को अधिकरण कहना पड़ता है। कषाय किस विषय में उत्पन्न हुआ या होता है इस प्रश्न का निश्चय करना चाहें तो अजीव को अधिकरण कहना पड़ता है।
जीव में उत्पन्न हुआ किसी विषय सम्बन्धी कषाय जीव की कैसी-कैसी अवस्था करता है या कैसे-कैसे कार्य जीव से कराता है यह बात दिखाते हैं
जिस विषय में कषाय उत्पन्न हुआ हो उस विषय को, इष्ट हुआ तो अपनाने और अनिष्ट हुआ तो हटाने का संकल्प मन में उत्पन्न हो जाता है। इस इच्छा या संकल्प के होते ही करने योग्य प्रयत्न की ओर झुकाव होता है। इसी को (1) संरम्भ' कहते हैं। उस झुकाव के बाद साधन इकट्ठे करने लगना इसको (2) समारम्भ है। फिर हटाने या अपनाने का कार्य शुरू हो जाना सो (3) प्रारम्भ है। मन के करने की यदि कोई बात हो तो ये संरम्भादि मन में होते हैं; वचन से करने योग्य कार्य है तो ये वचन में होते हैं: शरीर से करने योग्य कार्यों के समय शरीर में होते हैं, इसीलिए हम यदि तीनों योग सम्बन्धी संरम्भ, समारम्भ, आरम्भों को तीन योगों में विभक्त करें तो नौ प्रकार के संरम्भादिक हो जाते हैं।
इन नौ प्रकारों को कोई मनुष्य स्वयं करता है, कोई दूसरों को ऐसे कार्यों के करने में लगाता है और कोई दूसरों को वैसा करते देख प्रसन्न होता है या उसे अच्छा मानता है, इसीलिए तीन प्रकार और भी हो गये। स्वयंकृत, अन्यकारित, अनुमत या अनुमोदित ये तीनों प्रकारों के नाम हुए। इन तीनों से ऊपर के संरम्भादि नौ प्रकारों को गुणित करें तो सर्वभेद सत्ताईस हो जाते हैं।
ये सत्ताईस बातें कहीं तो क्रोध द्वारा की जाती हैं, कहीं मान कषाय द्वारा, कहीं मायाचार के वश और कहीं लोभ के वश। इसीलिए उन सत्ताईसों को क्रोध-मान-माया-लोभ की चार संख्या से गुणित करने पर एक सौ आठ भेद भी हो जाते हैं।
1. क्रोधकृतकाय संरम्भ, 2. मानकृतकाय संरम्भ, 3. मायाकृतकाय संरम्भ, 4. लोभकृतकाय संरम्भ, 5. क्रोधकारितकाय संरम्भ, 6. मानकारितकाय संरम्भ, 7. मायाकारितकाय संरम्भ, 8. लोभकारितकाय संरम्भ. 9. क्रोधानमतकाय संरम्भ. 10. मानानुमतकाय संरम्भ, 11. मायानुमतकाय संरम्भ, 12. लोभानुमतकाय संरम्भ, 13. क्रोधकृतवचन संरम्भ, 14. मानकृतवचन संरम्भ, 15. मायाकृतवचन संरम्भ, 16. लोभकृतवचन संरम्भ, 17. क्रोधकारितवचन संरम्भ, 18. मानकारितवचन संरम्भ, 19. मायाकारितवचन संरम्भ, 20. लोभकारितवचन संरम्भ, 21. क्रोधानुमतवचन संरम्भ, 22. मानानुमतवचन संरम्भ, 23. मायानुमतवचन संरम्भ, 24. लोभानुमतवचन संरम्भ, 25. क्रोधकृतचित्त संरम्भ, 26. मानकृतचित्त संरम्भ, 27. मायाकृतचित्त संरम्भ, 28. लोभकृतचित्त संरम्भ, 29. क्रोधकारितचित्त संरम्भ, 30. मानकारितचित्त संरम्भ, 31. मायाकारितचित्त संरम्भ, 32. लोभकारितचित्त संरम्भ, 33. क्रोधानुमतचित्त संरम्भ,
1. प्रयत्नावेशः संरम्भः। साधनसप्रभ्यासीकरणं समारम्भः। प्रक्रम आरम्भः।-रा.वा, 6/8, वा. 2-4
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