________________
166 :: तत्त्वार्थसार
दोष है। मत्सर का अर्थ द्वेष होता है । द्वेष रखकर ज्ञान का प्रकाश न करने वाला मनुष्य मत्सरी कहलाएगा और उसकी न प्रकाश करने की भावना को मात्सर्य कहें। इसके होने से ज्ञान का घात होता है, इसलिए यह ज्ञानावरण का आस्रव माना गया है। 2. दुष्टता या कालुष्य के वश होकर ज्ञानाभ्यास में विघ्न डालना अन्तराय' दोष है। 3. मति - श्रुतादि ज्ञानों को मोक्षसाधन मानकर यदि कोई प्रशंसा करे तो उत्तर में कहना तो कुछ नहीं, परन्तु मन के भीतर उस बात से ईर्ष्या करने लगना यह प्रदोष' कहलाता है। 4. किसी तत्त्वज्ञान के पूछने पर या बताने पर 'नहीं, ऐसा नहीं है, और मैं भी नहीं जानता' ऐसे कथन को ि कहते हैं। 5. कोई मनुष्य किसी दूसरे को किसी तत्त्वज्ञान का उपदेश करना चाहें और वह सुननेवाला पात्र भी हो, परन्तु उपदेशदाता को मना कर देना अथवा इशारे से रोक देना – इसे आसादनदोष' कहते हैं। 6. निर्दोष तत्त्वज्ञान को दोष लगा देना सो उपघात ' है । 7. तत्त्वों का उत्सूत्र कथन करना, 8. तत्त्वोपदेश सुनने में अनादर रखना, 9. आलस रखना, 10. शास्त्र बेचना, 11. अपने को बहुश्रुत मानकर अभिमान में मिथ्या उपदेश देना, 12. अध्ययन के लिए जो समय निषिद्ध हैं उन समयों में पढ़ना, 13. आचार्य तथा उपाध्याय के विरुद्ध रहना, 14. तत्त्वों में श्रद्धा न रखना, 15. तत्त्वों का अनुचिन्तन न करना, 16. सर्वज्ञ भगवान् के शासन प्रसार में बाधा डालना, 17. बहु श्रुतज्ञानियों का अपमान करना, 18. तत्त्वाभ्यास करने में शठता करना – ये सब ज्ञानावरण के आस्रव - हेतु हैं । तात्पर्य यह कि जिन कामों के करने से अपने तथा दूसरों के तत्त्वज्ञान में बाधा आए, मलिनता हो जाए वे सब ज्ञानावरण के आस्रव के कारण समझना चाहिए। उनमें से बहुत से कामों का ग्रन्थकार ने उल्लेख कर दिया है, परन्तु और भी बहुत हैं कि जिन्हें स्वविवेक से समझ लेना चाहिए। जैसे कि एक ग्रन्थ को असावधानी से लिखते हुए कुछ पाठ छोड़ देना या कुछ का कुछ लिख जाना, यह भी ज्ञानावरण के आस्रव का कारण होगा।
2. दर्शनावरण के आस्रव - हेतु -
दर्शनस्यान्तरायश्च प्रदोषो निह्नवोऽपि च । मात्सर्यमुपघातश्च तस्यैवासादनं तथा ॥ 17 ॥ नयनोत्पाटनं दीर्घस्वापिता शयनं दिवा | नास्तिक्यवासना सम्यग्दृष्टिसंदूषणं तथा ॥ 18 ॥ कुतीर्थानां प्रशंसा च जुगुप्सा च तपस्विनाम् । दर्शनावरणस्यैते भवन्त्यास्त्रवहेतवः ॥ 19 ॥
1. ज्ञानव्यवच्छेदकरणमन्तरायः । -- रा.वा. 6 / 10, वा. 4
2. ज्ञानकीर्तनानन्तरमनभिव्याहरतोन्त: पैशुन्यं प्रदोषः । - रा. वा. 6 / 10, वा. 1
3. पराभिसंधानतो ज्ञानव्यपलापो निह्नवः । - रा. वा. 6/10, वा. 2
4. वाक्कायाभ्यां ज्ञानवर्जनमासादनम् । - रा.वा. 6/10, वा. 5
5. प्रशस्तज्ञानदूषणमुपघातः । - रा. वा. 6 / 10, वा. 6
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org