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126 :: तत्त्वार्थसार
(समय) कीमती है। रत्न कभी पुराने नहीं होते वैसे समय पुराना नहीं होता। गेहूँ आदि में घुन लग जाती है तो वे चिपक जाते हैं । रत्नों में ऐसी घुन नहीं लगती, चिपकते नहीं हैं, उसी तरह कालाणु में भी घुन नहीं लगती, चिपकते नहीं हैं अतः काल द्रव्य को समझाने के लिए रत्नराशि का दृष्टान्त दिया है।
व्यवहार काल के चिह्न
व्यावहारिक-कालस्य परिणामस्तथा क्रिया। ___ परत्वं चापरत्वं च लिंगान्याहुमहर्षयः॥ 45॥ अर्थ-निश्चय काल के द्वारा जो पदार्थों में विशेषता होती है उसे महर्षियों ने व्यवहार काल की सूचक कहा है। उसके चार प्रकार हैं-(1) परिणाम, (2) क्रिया, (3) परत्व, और (4) अपरत्व। परिणाम का लक्षण
स्वजातेरविरोधेन विकारो यो हि वस्तुनः।
परिणामः स निर्दिष्टोऽपरिस्पन्दात्मको जिनैः॥46॥ अर्थ-अपनी जाति को न छोड़ते हुए वस्तुओं में जो विकार हो उसे जिन भगवान् परिणाम कहते हैं, परन्तु इतना विशेष है कि वह विकार चंचलतायुक्त नहीं होना चाहिए। क्रिया को आगे कहते हैं। उससे इस परिणाम में चंचलता न होने की ही विशेषता है।
कालकृत क्रिया का लक्षण
प्रयोगविस्त्रसाभ्यां या निमित्ताभ्यां प्रजायते।
द्रव्यस्य सा परिज्ञेया परिस्पन्दात्मिका क्रिया॥47॥ अर्थ-द्रव्यों में जो चंचलता युक्त विकार हो उसे क्रिया कहते हैं। क्रिया कुछ तो ऐसी होती हैं जो मनुष्यों के प्रयत्न से उत्पन्न हों और कुछ ऐसी होती हैं जो स्वयं ही निमित्त मिलने पर उत्पन्न हो जाती हैं। जो क्रिया स्वयं होती हैं उन्हें वैस्रसिक क्रिया कहते हैं और जो मनुष्य के प्रयत्न से होती हैं उन्हें प्रायोगिक कहते हैं।
कालकृत परत्वापरत्व का लक्षण
परत्वं विप्रकृष्टत्वमितरत् सन्निकृष्टता।
ते च कालकृते ग्राह्ये कालप्रकरणादिह॥48॥ अर्थ-दूर का नाम परत्व है और समीप का नाम अपरत्व है। यहाँ काल का प्रकरण होने से काल सम्बन्धी दूरता एवं समीपता को ग्रहण किया है।
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